Tuesday, June 1, 2010

आखिर मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त क्यों

ननकू के खेत का झगडा अगर पटवारी और तहसीलदार संभाल लें, तो ननकू अदालत क्यों जाए? ननकू के इस सवाल में ही पूरे प्रश्न का हल छिपा है। अगर विधायिका कानून बनाते समय गांधी के अंतिम आदमी के मंत्र को ध्यान में रखे और कार्यपालिका उन नीतियों को ढंग से लागू करे, तो भला न्यायपालिका को अनावश्यक हस्तक्षेप की जरुरत क्यों पडे?
आ ज न्यायिक सक्रियता का दौर है। जैसे-जैसे भारतीय संविधान परिपक्व होता गया, कार्यपालिका और विधायिका लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा से पीछे हटती गई। फिर भारत की आम जनता ने कमान अपने हाथों में संभाल लिया। जनहित याचिकाओं का दौर शुरु हुआ, जिसके कारण न्यायपालिकाओं को सक्रिय होना पडा। यही कारण है कि आज न्यायपालिका को सीवर ढका होने से लेकर महिलाओं को सेना में स्थायी कमीशन देने के मामले तक में फैसला देना पड रहा है। सडक़ के बीचों-बीच धार्मिक स्थल न बनें से लेकर आवारा पशुओं को सडक़ से हटाने तक न्यायपालिका को सक्रिय होना पडा है। लेकिन एक सवाल जो अहम है, वो ये कि आखिर क्यों न्यायपालिका को कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करना पड रहा है? अगर सीवर के ठक्कन लगाने से लेकर लैंगिक असमानता तक सभी फैसले न्यायपालिका को ही करने हैं, तो फिर ये लोकतंत्र के दो स्तंभ क्या करेंगे? यह जरूरत क्यों आन पडी क़ि कार्यपालिका और विधायिका को अक्सर न्यायपालिका की फटकार सुननी पडती है? लोकतंत्र में आम जनता ने संप्रभुता विधायिका के हाथों में सौंपी थी कि वह उनके हित में काम करेगी। कुछ ऐसी नीतियां बनाएगी, जिससे आम लोगों का भला हो सके। अंतत: 5 साल तक संसद में चुनकर भेजने का मतलब यही था कि वह भारत की जनता के प्रति जवाबदेह होगी। लेकिन विधायिका की निष्क्रियता से परेशान होकर लोगों को न्यायपालिका की शरण लेनी पड रही है।
अगर जनहित याचिका की बात करें तो सबसे पहले यह 1979 में बिहार के विचाराधीन कैदियों की अमानवीय स्थिति को लेकर डाली गई थी। त्वरित न्याय को इन कैदियों के लिए जरुरी माना गया, मुकदमे के नतीजतन 40,000 से भी अधिक कैदियों को रिहा किया गया था। इस सिद्धांत को बाद के निर्णयों में भी लागू रखा गया। दिल्ली में बढते प्रदूषण को कंट्रोल करने के लिए न्यायालय ने करीब एक लाख औद्योगिक ईकाइयों को शहर से बाहर करने का निर्णय दिया। इस मामले में मजदूर संगठनों ने यह आरोप लगाया कि इसमें पर्यावरण के नाम पर मजदूर हितों की अनदेखी की गई। न्यायालय के इस फैसले के कारण करीब 40 लाख मजदूर प्रभावित हुए थे। तो वहीं दिल्ली को प्रदूषणमुक्त रखने के लिए सीएनजी गाडियों की जरुरतों पर जोर दिया गया। न्यायपालिका लगातार ऐसे लोककल्याणकारी फैसले लेने के लिए विवश है। अब आइए इसके कारणों की जांच-पडताल करते हैं।
कार्यपालिका के अंदर भ्रष्टाचार इस कदर जड ज़मा चुकी है कि हरेक सरकारी नीतियों की विफलता के पीछे अधिकारियों की अक्षमता ही नजर आती है। विधायिका कल्याणकारी राज्य के लिए संवेदनशील नहीं रही। समावेशी विकास की जगह कुछ लोगों के विकास की बात होने लगी। कुछ समृद्धि के द्वीप खडे क़िए गए, तो इसकी कीमत कुछ क्षेत्रों को चुकानी पडी। भारत के समृद्ध राज्यों ने अपने-अपने स्थानीय उपनिवेश बना लिए। यही कारण है कि तेलंगाना, बुंदेलखंड, पूर्वांचल की मांगें इन दिनों जोर पकडती जा रही हैं। ट्रिकल डाउन थ्योरी ने भारतीय लोकतंत्र में एक नई भिखारियों की जमात को जन्म दिया है, जिसके प्रति सरकार हमदर्द नहीं। यही कारण है कि हाल में दिल्ली सरकार को दूसरे राज्यों के भिखारियों के पुनर्वास के लिए संबंधित राज्यों से संपर्क करना पडा। यानी जो नागरिक इस राज्य की अर्थव्यवस्था में योगदान नहीं देगा, उसे राज्य सरकार जबरन उठाकर राज्य की सीमा से बाहर फेंक देगी। कल को यही तर्क इस राज्य के बेरोजगारों के लिए भी गढे ज़ाएंगे। तो विधायिका के इन तर्कों को न्यायपालिका ने सिरे से खारिज करते हुए इस तरह के कृत्य को असंवैधानिक करार दिया।
विधायिका के दोहरे मापदंड के कारण ही रिक्शे चालकों को आजतक लाइसेंस राज में जीना पड रहा है। जबकि उद्योगपति लाइसेंस राज की त्रासदी से कब के उबर चुके हैं। आखिर क्यों सरकार दिल्ली में ट्रैफिक जाम के लिए जिम्मेदार वाहन कंपनियों को सीमित संख्या में लखटकिया कार बनाने के लिए मजबूर नहीं करती? देश के अरबों रुपए स्वास्थ्य क्षेत्र में फूंके जाने के लिए जिम्मेदार तंबाकू व्यवसायियों पर रोक लगाने की बात क्यों सरकार नहीं करती? फिर इन्हीं तर्कों पर हम कैसे ट्रैफिक की बदहाली के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए गरीब रिक्शा चालकों को शहर से बाहर कर सकते हैं? यहां भी न्यायपालिका ने गरीब रिक्शा चालकों के हित में फैसला दिया और लाइसेंस राज से मुक्ति के लिए सरकार को कदम उठाने के लिए कहा। विधायिका के ऐसे फैसलों के कारण ही जनता की नजर में उसकी विश्वसनीयता घटी है। आम जनता भी उसके दमनकारी कानूनों के विरोध में न्यायपालिका रूपी ब्रहमास्त्र का प्रयोग करने से नहीं चूकती।
भारत में समय के अनुसार सामाजिक सरोकार नारों में तब्दील होते चले गए। फिर इसका जिम्मा विदेशी पूंजी से चलने वाले एनजीओ ने उठा लिया। जो विदेशी कंपनियों के दलाल बनकर भारत में कुछ- कुछ सुधारवादी काम करने का दिखावा करते रहे और ऐसी कंपनियों के हितों के लिए छुपे रूप से काम करते रहे। यही कारण है कि व्यवस्था की जकडन को ढीली करने के लिए विदेशी कंपनियां सूचना का अधिकार पर काम करने के लिए तो एनजीओ को पैसा देती है, लेकिन स्वराज जैसे काम के लिए फंड की कमी का रोना रोती है। भारत की आम जनता ने एनजीओ के इस गोरखधंधे को समझा और धीरे-धीरे इनके चंगुल से बाहर निकलने के लिए कमान खुद अपने हाथों में ले ली। दुर्भाग्य है कि तमाम सरकारी और गैर सरकारी संगठन सिर्फ सत्ता-सुख का भोग करने में लिप्त हैं और न्यायपालिका को चौबीसों घंटे सजग रहना पड रहा है। सेना में महिलाओं के स्थायी कमीशन की बात करें तो यह वर्षों से मंत्रालय दर मंत्रालय धक्के खाती रही। तमाम मंत्री आए और चले गए, तमाम सेनाध्यक्ष आए और कार्यकाल पूरा होने पर चले गए लेकिन इस लैंगिक असमानता को दूर करने की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। अंत में यह फैसला भी न्यायालय को ही करना पडा।
न्यायपालिका पर ज्यूडिसियल एक्टीविजम का आरोप लगा रहे लोगों को यह देखना चाहिए कि आखिर क्यों लोग अदालत की ओर भाग रहे हैं? आज यहां जनहित याचिकाओं की बाढ क्यों उमड पडी है? ननकू के खेत का झगडा अगर पटवारी और तहसीलदार संभाल लें, तो ननकू अदालत क्यों जाए? ननकू के इस सवाल में ही पूरे प्रश्न का हल छिपा है। अगर विधायिका कानून बनाते समय गांधी के अंतिम आदमी के मंत्र को ध्यान में रखे और कार्यपालिका उन नीतियों को ढंग से लागू करे, तो भला न्यायपालिका को अनावश्यक हस्तक्षेप की जरुरत क्यों पडेग़ी? दुनिया के लगभग हर मुल्क में युद्ध में शहीद हुए जवानों की याद में भव्य स्मारक बनाए गए हैं। भारत में सेना यह मांग लंबे समय से करती रही है, लेकिन किसी भी सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगा। जबकि नेहरु परिवार की मूर्तियां हर चौराहे, सडक़ों की शोभा बढाती दिख जाएगी। कोई सरकारी योजना की शुरुआत भी इन्हीं के नाम पर की जाती है। सरकार अगर आम जनता की उपेक्षा कर हाथी की मूर्तियां बनाने एवं पार्क पर करोडाें रुपए खर्च करने में लगी होगी और अदालत की फटकार के बाद भी मानने को राजी नहीं होगी, तो हार कर न्यायपालिका को जनहित में फैसला देने को मजबूर होना ही होगा। हालांकि न्यायपालिका की अपनी भी सीमाएं हैं। जजों की संख्या बढाकर, या कुछ कंप्यूटर लगाकर या अदालतों का डिजीटलीकरण कर मूल समस्या को एड्रेस नहीं किया जा सकता। संसद, विधानसभाओं में भी न्यायालयों की अति सक्रियता पर लगातार सवाल उठाए जाते रहे हैें। यह कहा जा रहा है कि न्यायालय अपनी सीमा का अतिक्रमण कर हमारे मामलों में दखल दे रही है। लेकिन क्या ये सवाल अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए उठाया गया नहीं दिखता। हम सुस्त हैं और इस बात पर हंगामा कर रहे हैं कि दूसरा सक्रिय क्यों है?

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