Friday, May 28, 2010

कबाड नहीं, मौत का बाजार

चंदन राय
इराक-ईरान युद्ध के समय तो न जाने कई मिसाइल, बारूद, रॉकेट लांचर एवं जिंदा बमों की कई खेप कबाड बाजार में चली आई थी। यही नहीं अमरीका, यूरोपीय देशों, सिंगापुर एवं अरब देशों से बड़े पैमाने पर आयात करके कबाड़ यहां लाया जाता है। ताजुब की बात तो यह है कि जिंदा बम मिलने की घटना के बाद भी विदेशों से आने वाले कबाड़ की सख्ती से जांच नहीं की जाती। जबकि विशेषज्ञों का मानना है कि कबाड़ की किसी भी वस्तु की तोड़-फोड़ करने से पहले मशीनों से जांच कर इन्हें अलग निकाल लेना चाहिए। लेकिन हालात तो ये हैं कि आज एमसीडी से लेकर पुलिस अधिकारी भी ऐसे कबाड क़ो लेकर अपने आंख-कान मूंदे रहते हैं
आ पके घर को खूबसूरत बनाने के लिए एक ऐसी जगह होती है, जहां बेकार पडी चीजों को फेंका जा सके। यानी कह सकते हैं कि कबाडख़ाने की बदसूरती पर ही आपके घर की सुंदरता है। ठीक यही हाल अमरीका, यूरोप जैसे देशों का भी है, जो अपने यहां की फालतू चीजों को भारत जैसे देशों में खपा देते हैं। हम बडे चाव से उन चीजों को मेड इन यूएसए की शेखी बघारते हुए यार-दोस्तों पर रौब जमाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। लेकिन अब सावधान हो जाएं। ऐसी शेखी दिखाना आपके सेहत पर भारी पड सकता है क्योंकि भारत दुनिया का सबसे बडा कबाडख़ाना बनने जा रहा है। बारूद के ढेर पर बैठा हमारा देश कई भूषण स्टील जैसे विस्फोटों को अपने गर्भ में छिपाए है। जो समय-समय पर लोगोें को अपना विकराल रूप दिखाकर आने वाले खतरे से आगाह करता रहा है।
ई-कचरा हमारे अस्तित्व के लिए ही चुनौती बनता जा रहा है। भारत एक बार फिर सुर्खियों में रहा-एशिया की सबसे बडी क़बाड मंडी मायापुरी में एक रहस्यमयी विकिरण के कारण, जो दिल्ली में पांच लोगों पर कहर बनकर आई। उनका पूरा शरीर काला पड ग़या और बाल एवं नाखून झडने लगे। जब तक बीमारी का कारण समझ में आता, मायापुरी का पूरा इलाका दहशत में रहा। तो जनाब, इस समस्या के जड में था-रेडियोधर्मी तत्व कोबाल्ट-60 जिससे हुए विकिरण ने लोगों की नींद उडा दी। मायापुरी एक ऐसी जगह बन गई है, जहां न सिर्फ पूरे देश से कबाड़ आता है, बल्कि दुनिया के विभिन्न हिस्सों के कबाड़ को खपाने के लिए भी यह काफी महफूज जगह मानी जाती है।
कोबाल्ट एक ऐसा रेडियोएक्टिव तत्व है जो यूरेनियम से भी ज्यादा खतरनाक है। इसके एक्टिव होने के बाद इससे निकलने वाली गामा किरणें शरीर को झुलसा देती हैं, जो जानलेवा हो सकती हैं। इसका इस्तेमाल अमूमन आभूषणों के रंग-रोगन, कैंसर रोगियों के इलाज एवं स्टील वेल्ंडिग में धडल्ले से किया जाता है। संभव है कि यह तत्व अस्पतालों की असावधानी की वजह से यहां पहुंचा हो। लेकिन इससे पहले कचरों के ढेर में हुए विस्फोटों के लिए हमारे पास क्या बहाना हो सकता है? इसके लिए हमारे सुरक्षा अधिकारी भी कम जिम्मेदार नहीं, जो करोडाें टन आयातित ई-कचरे को बिना जांच किए पास करने देते हैं। इसके साथ ही वे औद्योगिक संस्थान भी जिम्मेदार हैं, जो खतरनाक तत्वों को निष्क्रिय किए बिना ही मासूम कबाडियों को मौत की सौगात के रूप में कबाड भेज देते हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि यह कबाड भी विदेशों से ही आयात किया गया था। बंदरगाहों पर बिना जांच के ही विस्फोटक, रेडियोएक्टिव एवं जहरीले कबाडाें का पास किया जाना हमारे सुरक्षा उपायों की पूरी तरह पोल खोल देता है।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक केवल भारत में 2020 तक खराब कंप्यूटरों का कबाड 500 ग़ुना तक बढ़ सकता है। सेलफोन से कबाड ऌसी अवधि के दौरान बढक़र 18 गुना तक हो जाएगा। हर साल विश्व भर से 4 करोड़ टन ई-वेस्ट पैदा होता है। इसमें अकेले 30 लाख टन केवल अमरीका पैदा करता है। इसमें कंप्यूटर के अलावा टेलीविजन, फ्रिज, प्रिंटर, टेलीफोन, मोबाइल और कई बिजली के उपकरण भी शामिल हैं, जो ई-वेस्ट पैदा करते हैं। इन खतरनाक कचरों के लिए उपभोगवादी अमरीकी सोच जिम्मेदार है। अंधाधुंध उपभोगवाद के कारण हमारी जरूरतें रोज बदलती जा रही हैं। ब्लैक एंड व्हाईट टीवी से कलर और फ्लैट्रॉन से आगे की यात्रा न जाने कहां खत्म होगी? नई चीजें आती हैं, तो हर पुरानी चीज कबाडख़ाने यानी की भारत जैसे देशों में भेज दी जाती है।
हाल ही में अमरीका से चला कबाडाें से भरा जहाज इंडोनेशिया भेजा गया था। इस जहाज में टेलीविजन, कंप्यूटर के स्क्रीन एवं सेलफोन के पुराने उपकरण भरे पडे थे। वहां की सरकार ने ई-वेस्ट की तस्करी से अपने देश को बचाने की गुहार लगाते हुए अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को इसके खतरों से आगाह किया था। वहीं भारत जैसे देश तो ऐसा लगता है मानो मौत का सामान इकट्ठे करने के लिए लालायित हैं।
विदशियों की साजिश का एक नमूना गुजरात के अलंग में देखने को मिलता है। यहां जहरीले जहाजों को तोडने का काम किया जाता है। अमरीका के पास करीब 300 ऐसे जहाज हैं, जिन्हें वह ठिकाने लगाना चाहता है। दरअसल, जहाज 40-45 साल बाद बर्बाद हो जाते हैं। उन्हें जहर मुक्त करने में 35 से 50 मिलियन यूरो का खर्च आता है। इसे बचाने के लिए जहाज को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे विकासशील देशों में डंप करने का जुगाड़ भिड़ाया जाता है। अंतरराष्ट्रीय संधि के मुताबिक, जब तक जहाज को पूरी तरह क्लीन घोषित न कर दिया जाए, तब तक उसे किसी देश में टूटने के लिए नहीं भेजा जा सकता। लेकिन पर्यावरण एवं सुरक्षा मानकाें की अनदेखी करते हुए इन जहाजों को यहां तोडा जा रहा है।
अमरीकी सरकार बिक्री बढाने के लिए पुरानी कार की जगह नई कार लेने पर छूट की घोषणा करती है। इस योजना को पश्चिमी देश कैश फॉर क्लंकर्स कहते हैं। हालांकि छूट तो भारत सरकार भी देती है, लेकिन उसका कारण पुरानी कारों से होने वाले हानिकारक कार्बन गैसों का उत्सर्जन कम करना होता है। अगर तकनीकी उपकरणों की बात करें तो इनके मॉडल जितनी तेजी से बदलते हैं, उनका सेकेंड हैंड बाजार उतनी तेजी से नहीं बढता। ऐसी चीजें महानगरों में कबाड क़े रूप में भेज दी जाती हैं। मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु आज देश में ई-वेस्ट के मामले में सबसे ऊपर हैं। किसी कवि की एक छोटी-सी कविता में हमारा यह पूरा मानव-व्यापार छिपा है :
उन्होंने बहुत-सी चीजें बनाईंऔर उनका उपयोग सिखायाउन्होंने बहुत सी और चीजें बनाईं दिलफरेबऔर उनका उपभोग सिखायाइस कारोबार ने दुनिया को फाड़ा भीतर से फांक-फांकबाहर से सिल दिया गेंद की तरह ठसाठस कबाड़ भरा विस्फोटक हैअंतरिक्ष में लटका हुआ पृथ्वी का नीला संतरा। धीरे-धीरे कबाड क़ा पहाड ऌकट्ठा होता चला गया और उसे खपाने के लिए हमारे जैसे गरीब
देश आगे आए।
दरअसल भारत में गरीबी का ये आलम है कि वहां के ठुकराए माल बेचकर कबाडी भी माला-माल हो जाते हैं। विदेशों से आया कपडा शहरों के सप्ताह में लगनेवाले मेलों में देखा जा सकता है, जिसे खरीदने के लिए लोगों का हुजूम निकल पडता है। यही हाल मोबाइल, टेलीविजन और कंप्यूटर को लेकर भी है, जिसका कारोबार नेहरू प्लेस से लेकर गफ्फार मार्केट तक फैला है। खतरनाक कचरों के निपटारे पर इतना खर्च आता है, जितना कि उनके निर्माण पर भी नहीं होता। इससे पर्यावरण को तो नुकसान पहुंचता ही है, साथ ही मानव स्वास्थ्य के लिए यह जानलेवा भी साबित होता है। इनसे खतरा और बढ ज़ाता है जब इन खराब उपकरणों को जलाकर सोना और चांदी जैसी कीमती धातुएं को जमा किया जाता है। कंप्यूटर, टेलीविजन और मोबाइल जैसे उपकरणों को रिसाइकिल करने के लिए जब जलाया जाता है, तो इनसे जहरीली गैस निकलती है, जो कैंसर जैसी बीमारियों को जन्म देती है। अगर आप धूम्रपान करते हैं, तो घबडाने की जरूरत नहीं। इससे ज्यादा घातक बीमारियां तो हमें मोबाइल के इस्तेमाल से ही हो सकती हैं। वैज्ञानिकों की मानें तो मोबाइल से होने वाले इलेक्ट्रो मैग्नेटिक रेडिएशन (ईएमआर) से ब्रेन डैमेज व हृदय संबंधी बीमारी, कैंसर, त्वचा रोग, ऑस्टियोपोरोसिस, ब्लड प्रेशर, थकान, स्मृति-लोप आदि समस्याएं हो सकती हैं। तो है न यह धूम्रपान से भी ज्यादा हानिकारक।
मोबाइल टॉवर से निकलने वाला रेडिएशन तो इतना तेज होता है कि इस पर चिड़िया भी नहीं बैठ पाती। यही कारण है कि हमारे घर-आंगन में चहकनेवाली गौरेया अब घरों के आस-पास भी नहीं दिखती।
इराक-ईरान युद्ध के समय तो न जाने कई मिसाइल, बारूद, रॉकेट लांचर एवं जिंदा बमों की कई खेप कबाड बाजार में चली आई थी। यही नहीं अमरीका, यूरोपीय देशों, सिंगापुर एवं अरब देशों से बड़े पैमाने पर आयात करके कबाड़ यहां लाया जाता है। ताजुब की बात तो यह है कि जिंदा बम मिलने की घटना के बाद भी विदेशों से आने वाले कबाड़ की सख्ती से जांच नहीं की जाती। जबकि विशेषज्ञों का मानना है कि कबाड़ की किसी भी वस्तु की तोड़-फोड़ करने से पहले मशीनों से जांच कर इन्हें अलग निकाल लेना चाहिए। लेकिन हालात तो ये हैं कि आज एमसीडी से लेकर पुलिस अधिकारी भी ऐसे कबाड क़ो लेकर अपने आंख-कान मूंदे रहते हैं। जब इन कबाड क़े ढेर में विस्फोट होता है और कई निर्दोष लोग इसकी भेंट चढ ज़ाते हैं, तब सरकार थोडी देर के लिए नींद से जागती है, फिर एक लंबी नींद सो जाने के लिए। ऐसे में कहा जा सकता है कि भारत का कबाड बाजार बारूद के ढेर पर बैठा है।

No comments:

Post a Comment