Tuesday, June 1, 2010

सावधान, कोई सुन रहा है?

आपात काल के दिनों में भी नेता संभलकर फोन पर बात-चीत करते थे। उन्हें पता था कि कांग्रेस हाईकमान के निर्देश पर सभी विरोधी नेताओं की टोली पर सरकार की नजर है। फोन टैप करना ही नहीं, बल्कि उसी के आधार पर विरोधियों पर कार्रवाई भी की जाती थी। क्या हम अभी तक आपातकाल के सदमे से उबरने में सफल हो सके हैं? नेहरू लोकतंत्र में अपने राजनैतिक विरोधियों को भी जगह देते थे। इतना ही नहीं, वे राजनीति में ऐसे लोगों का सम्मान भी करते थे। लोहिया चाहे सदन में नेहरु को कितनी भी खरी-खरी सुना दें, बाहर आते ही हंस कर गले मिलते थे। सारे गिले-शिकवे दूर करने का नेहरु का ये अपना तरीका था, जिसका राजनैतिक विरोधी भी सम्मान करते थे। क्या कांग्रेस अपनी राजनीतिक विरासत भूलती जा रही है?
चंदन राय
भा रत में राजा-महाराजाओं के अपने खुफिया तंत्र होते थे। उनका काम जनता के बीच जाकर गुप्त तरीके से यह पता लगाना होता था कि राजा के खिलाफ लोग षडयंत्र तो नहीें कर रहे। धीरे-धीरे समय बदला और देश में लोकतंत्र की बयार आई। रातों-रात राजा-महाराजा चोगा बदल लोकतंत्र के रहनुमा बन गए। लेकिन एक परिवर्तन आ चुका था, अब जनता के मौलिक अधिकार के साथ कर्तव्य भी निर्धारित कर दिए गए थे। सत्ता का चाल-चरित्र बदला, लेकिन सिंहासन के पुराने कायदे-कानून वही रहे। वंशानुगत अधिकारों को अब लोकतांत्रिक रूप दे दिया गया, लेकिन राजनैतिक विरोधियों के लिए खुफिया विभाग जस-का-तस बना रहा। आईबी और रॉ के होने का मकसद तो कुछ और बताया जाता रहा, लेकिन वे राजनैतिक विरोधियों के शह-मात के खेल में ही लगे रहे। आपातकाल के दिनों में खुलकर, तो बाकि दिनों में दबे-छुपे तरीके से। यही कारण है कि नेताओं के फोन टैप किए जाने के मामले पर जनता के बीच कोई तीखी प्रतिक्रिया
नहीं हुई।
राजतंत्र से लोकतंत्र तक की यात्रा में एक परिवर्तन आ चुका था। अब संख्याबल ही सत्ता का मिजाज तय करता था। सरकार को अपने विरोधियों से भी ज्यादा खतरा अपने पार्टी के विभीषणों से था। न जाने कब पाला बदल, गच्चा दे जाएं। इसलिए जरुरी था कि इनकी लगाम को मजबूती से थामकर रखा जाए। आईपीएल प्रकरण में तो वह अपने विश्वस्त सिपाहसलार शशि थरूर को दांव पर लगा ही चुकी थी। अब इस मामले में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ था नहीं। यही कारण है कि वह आईपीएल की साफ-सफाई में खासा रुचि ले रही थी। मराठा छत्रप को अंकुश में रखने के लिए प्रफुल्ल पटेल पर दांव खेला गया। राजनीति के बिसात पर अपना मोहरा पिटता देख कांग्रेस ने अंतिम हथियार के रूप में आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी पर शिकंजा कसा। सरकार को पता था कि मुसीबत में वे अपने राजनैतिक आकाओं को फोन जरूर करेंगे और इसी दांव पर कुछ केंद्रीय मंत्रियों के नाम भी सामने आने लगे जो आईपीएल की आड में काला धन सफेद करने में लगे थे।
अगस्त 2007 में बिहार के मुख्यमंत्री दिल्ली यात्रा पर थे। देश के बीमारु प्रदेश का प्रतिनिधित्व करने वाले नीतीश केंद्र सरकार से विशेष फंड की फिराक में थे। वे अपने मित्रों से सहायता राशि के बारे में फोन पर बात-चीत कर रहे थे। लेकिन उन्हें क्या पता था कि वे सरकार की नजर में देश के लिए बडे ख़तरों में से एक हैं और उनका फोन टैप किया जा रहा है? बिहार में राजनैतिक धरातल की तलाश में जुटी केंद्र सरकार के लिए यह जरूरी था कि सूबे के मुख्यमंत्री के मंसूबों को जांचा-परखा जाए। कुछ ऐसी ही गलती माकपा के महासचिव प्रकाश करात ने भी कर दी थी। वे विपक्ष को एकजुट कर सदन में यूपीए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी में थे।
उन दिनों यूपीए सरकार के एकसूत्रीय एजेंडे में शामिल था भारत-अमरीकी असैन्य परमाणु करार और वे उसके खिलाफ राजनैतिक माहौल बना रहे थे। सरकार को गिराने का दांव खेलने के कारण वे सरकार की नजर में राष्ट्रद्रोही माने जा रहे थे। इसलिए वे भी केंद्र सरकार के खुफिया एजेंसियों के दायरे में थे। कांग्रेस के महासचिव दिग्गी राजा की समझ में नहीं आ रहा था कि उनसे कौन सी खता हो गई कि सरकार ने उनकी भी जासूसी शुरु कर दी। लेकिन उनकी यही गलती थी कि वे पार्टी लाईन से कभी-कभी अलग कदम उठा लेते थे। कांग्रेस कार्यकारिणी का चुनाव होने वाला था और वे कौन सा तुरूप का पत्ता चलेंगे इसलिए उनका फोन भी खुफिया एजेंसियों के दायरे में था। आपात काल के दिनों में भी नेता संभलकर फोन पर बात-चीत करते थे। उन्हें पता था कि कांग्रेस हाईकमान के निर्देश पर सभी विरोधी नेताओं की टोली पर सरकार की नजर है। फोन टैप करना ही नहीं, बल्कि उसी के आधार पर विरोधियों पर कार्रवाई भी की जाती थी। क्या हम अभी तक आपातकाल के सदमे से उबरने में सफल हो सके हैं? क्या इन घटनाओं ने एक बार फिर लोगों को 1975 के काले दिनों की याद नहीं दिला दी? जब लोगों के राजनैतिक एवं मौलिक अधिकार छीने जा रहे थे और हर जगह खामोशी छाई थी।
नेहरू लोकतंत्र में अपने राजनैतिक विरोधियों को भी जगह देते थे। इतना ही नहीं, वे राजनीति मेें ऐसे लोगों का सम्मान भी करते थे। लोहिया चाहे सदन में नेहरु को कितनी भी खरी-खरी सुना दें, बाहर आते ही हंस कर गले मिलते थे। सारे गिले-शिकवे दूर करने का नेहरु का ये अपना तरीका था, जिसका राजनैतिक विरोधी भी सम्मान करते थे। क्या कांग्रेस अपनी राजनीतिक विरासत भूलती जा रही है? क्या लोकतंत्र में बिना सशक्त विपक्ष के उचित नीति-निर्धारण संभव है? कहीं न कहीं तो हमें राजनैतिक विरोधियों को स्पेस देना ही होगा, उनके विचारों का सम्मान करना होगा, उनकी आलोचनाओं की कसौटी पर सरकार की नीतियों को कसा जाना होगा, यही एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है।
जानकारी मिली है कि सरकार के पास करीब 90 ऐसे उपकरण हैं, जिनका इस्तेमाल दंगों, राष्ट्रीय आपदाओं एवं आतंकवाद से लडने के लिए किया जाना है। लेकिन इस बात की कल्पना कर ही मन कांप उठता है कि अगर ये उपकरण आतंकवादियों के हाथ लग गए, तो सरकार की उनपर निगरानी की सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाएंगी। और वे जब चाहे, जहां चाहे, कुछ भी करने को स्वतंत्र होंगे। सत्ता की नजदीकी का फायदा उठाकर उद्योगपति अपने विरोधी कंपनियों को मात देने के लिए या उनकी योजनाओं पर नजर रखने के लिए भी इस उपकरण का इस्तेमाल कर सकते हैं।
कानूनी दृष्टि से बात करें तो ये संविधान के अनुच्छेद 21 का सरासर उल्लंघन है। लोकतंत्र में किसी भी व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना दायरा होता है, जहां उसे उम्मीद होती है कि उसकी निजता सुरक्षित है। अगर इसपर हमला हुआ, तो लोकतंत्र भी खतरे में पड ज़ाएगा। फोन टैपिंग की आड में 2 किलोमीटर तक के दायरे में आने वाले किसी भी व्यक्ति के फोन को सुना जा सकता है। क्या यह अधिकार हम सरकार को देंगे कि वह हमारी निजी बात-चीत पर भी नजर रखे? ऐसे हालात में सभी पार्टियों से यह उम्मीद करना कि वे सरकार के सुर में सुर मिलाएं-कहां तक उचित है? राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने भी एक बार राजीव गांधी सरकार पर यह आरोप लगाया था कि राष्ट्रपति भवन में उनका फोन टैप किया जा रहा है। इसी प्रकार के आरोप कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े पर भी लगे थे, जिसके कारण बाद में उन्हें अपने पद से भी इस्तीफा देना पड़ा था। अमर सिंह ने भी अपना फोन टैप किए जाने का आरोप लगाया था। चंद्रशेखर सरकार से कांग्रेस की समर्थन वापसी की अहम वजह भी फोन टैपिंग ही थी। ऐसे में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार फोन टैपिंग को किसी भी तरह से उचित नहीं ठहरा सकती। पहले थाने के प्रभारी को भी यह अधिकार था कि वह टेलीफोन कंपनी से कहकर किसी का फोन टैप करा लेता था। लेकिन अब आईजी स्तर के अधिकारी की सहमति से ही किसी का फोन टैप किया जा सकता है। हालांकि राज्य स्तर पर गृहसचिव की स्वीकृति को भी जरुरी माना गया है। लेकिन अब ऐसे डिवाइस आ गए हैं, जिसमें मंजूरी की कोई जरूरत ही नहीं। एक चलती कार में यह डिवाइस लगा होता है, जो 2 किलोमीटर तक के दायरे में आने वाले किसी भी व्यक्ति का फोन टैप कर सकता है।
उम्मीद की जा रही है कि इस मामले को लेकर संसद का आगामी सत्र काफी हंगामेदार होगा। विपक्ष केंद्र सरकार को पूरी तरह से घेरने की तैयारी में है। महंगाई, महिला आरक्षण, आईपीएल ने पहले ही सरकार की नाक में दम कर रखा है। ऐसे में फोन टैपिंग प्रकरण की आंच प्रधानमंत्री को थिम्फू के वातानुकूलित कक्ष में भी महसूस होगी।

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