Friday, May 28, 2010

कोख में तलवार

चन्दन राय
जैसे ही औजार गर्भाशय की दीवार को छूता है, बच्ची डर से कांपने लगती है और अपने आप में सिकुडने लगती है। औजार छूते ही उसे पता चल जाता है कि अब हमला होने वाला है। वह बचाव के लिए जोर से चिल्लाती है। लेकिन बचाने वाली मां तो बेसुध ऑपरेशन-थियेटर में पडी होती है। औजार का पहला हमला कमर व पैर के ऊपर होता है। कन्या-भ्रूण दर्द से तडपने लगती है। फिर जब उसके सिर को चकनाचूर किया जाता है, तो एक मूक चीख के साथ तडपकर वह असहाय मां के गर्भाशय की दीवारों पर चोट मारती है। एक अंतिम आस कि शायद मां जग जाए और उसे बचा ले। लेकिन आज मां उसे बचाने के लिए सामने नहीं आती। आज वो नहीं जगेगी, क्योंकि उसी ने तो बच्ची से गर्भ में ही छूटकारा पा लेने का फैसला लिया है।

यह आधी आबादी की दुनिया में शोषण के लिए लडी ज़ाने वाली सबसे बडी और लंबी लडाई है।
मां चाहे मुझे प्यार न देना, चाहे दुलार न देना। कर सको तो इतना करना, जन्म से पहले मार न देनाएक अजन्मे बच्चे की करुण पुकार सभ्य समाज के चेहरे को परत दर परत उघाडक़र रख देती है। एक कूडेदान में 16 अजन्मे बच्चे अपने मां-बाप से यही तो पुकार कर रहे होंगे, जब कुत्ते इन्हें नोंचते हुए इधर-उघर घसीट रहे होंगे। मनचाहा संतान पाने की इच्छा ने हमें कितना क्रूर बना दिया है, अपने ही बच्चों के प्रति। गांवों में अभी भी माताओं को बच्ची जनने के कारण परिवार की उलाहनाएं सुननी पडती है। कई बार ऐसा देखा गया है कि बच्ची के जन्म लेने पर माताएं रोने लगती हैं। बिना इस बात को सोचे-जाने कि अगर उनके मां-बाप ने भी शायद ये फैसला लिया होता, तो वे इस धरती पर नहीं होती। हरियाणा में कई ऐसे गांव हैं, जहां लोगों की शादियां नहीं होतीं। कारण ये नहीं कि वे गरीब हैं या पढे-लिखे नहीं, एकमात्र कारण है हरियाणा में बच्चियों का कम होना। सामाजिक ताना-बाना टूटने के कारण या तो उन्हें पडाेसी राज्यों से लडक़ियां मंगानी होती है या फिर दूसरी बिरादरी में शादी करनी पडती है। यानी बच्चियां वधू के रूप में तो स्वीकार है, लेकिन बेटी नहीं।
भारत में आम तौर पर नर्सिंगहोम के आगे एक बडी सी पट्टिका लगी होती हैयहां लिंग परीक्षण नहीं किया जाता। यह कानूनन जुर्म है। शायद यह चेतावनी सरकारी अधिकारियों के लिए ही होती है। लेकिन अंदर जाने पर पता चलेगा कि इस चहारदीवारी के अंदर ऐसे सभी कर्म किए जाते हैं, जो मानवता को शर्मसार करते हाें। सिगरेट पर छपे चेतावनी की तरह ही अल्ट्रासाउंड क्लीनीक चलाने वाले इस कानून का माखौल उडाते हैं। यही कारण है कि भारत में कई अच्छे कानून सरकारी अधिकारियों की सुस्ती के कारण असमय ही दम तोड दिए। अगर इस कानून का पालन हो रहा होता, तो कूडे क़े ढेरों में बच्चे कैसे मिलते? भ्रूण-परीक्षण कराने के पीछे हमारा लक्ष्य था शिशु में किसी प्रकार के विकृति का पता लगाना, ताकि समय से पहले उपचार किया जा सके। लेकिन समय के साथ हमारा उद्देश्य बदलता चला गया और डॉक्टरों का ईमान।
आंकडों की बात करें तो देश के सबसे समृध्द राज्यों में प्रति हजार बालिकाओं की संख्या पंजाब में 798, हरियाणा में 819 और गुजरात में 883 है। अगर राष्ट्रीय आंकडो की बात करें तो यह 1981 में एक हजार बालकों के पीछे 962 बालिकाएं थी, जो 2001 में घटकर 927 ही रह गईं। नवरात्र के समय गली-मोहल्लों में खोज-खोज कर बालिकाओं को जिमाने एवं पूजने वाला समाज कैसे इनके प्रति इतना निर्मम हो जाता है? इससे पहले भी अगस्त 2006 में पंजाब राय के पटियाला शहर में एक नर्सिंगहोम के पास एक गङ्ढे से 35 कन्या भ्रूण मिले थे। इसका पता लोगों को तब चला था जब वहां की एक दाई ने ही इस बात का भंडाफोड क़िया। एक बात तो तय है कि देश की समृध्दि, शिक्षा एवं रहन-सहन का इस समस्या पर कोई प्रभाव नहीं पडता। उदारीकरण के दानव ने जैसे-जैसे अपने पांव पसारने शुरू किए, मानव के अंदर का दानव भी जागता गया। बच्चियों के प्रति निर्मम रहे समाज का भयंकर चेहरा लोगों के सामने आया। कोढ में खाज की तरह भ्रूण-परीक्षण ने लोगों को बच्चियों से छुटकारा दिलाने का रास्ता दिखाया। तो ऐसे अजन्मे बच्चे गटर में नजर आने लगे।
डॉ. निथसन ने अमरीका में एक अल्ट्रासाउंड फिल्म दिखलाकर कन्या-भ्रूण की मौन चीख सभ्य समाज के सामने लाने का प्रयास किया था। भ्रूण को इस बात का एहसास होता है कि कोई चीज जो उसकी ओर आ रही है, वह किस सोच से उसकी ओर बढ रही है। जैसे ही औजार गर्भाशय की दीवार को छूता है, बच्ची डर से कांपने लगती है और अपने आप में सिकुडने लगती है। औजार छूते ही उसे पता चल जाता है कि अब हमला होने वाला है। वह बचाव के लिए जोर से चिल्लाती है। लेकिन बचाने वाली मां तो बेसुध ऑपरेशन-थियेटर में पडी होती है। औजार का पहला हमला कमर व पैर के ऊपर होता है। कन्या-भ्रूण दर्द से तडपने लगती है। फिर जब उसके सिर को चकनाचूर किया जाता है, तो एक मूक चीख के साथ तडपकर वह असहाय मां के गर्भाशय की दीवारों पर चोट मारती है। एक अंतिम आस कि शायद मां जग जाए और उसे बचा ले। लेकिन आज मां उसे बचाने के लिए सामने नहीं आती। आज वो नहीं जगेगी क्योंकि उसी ने तो बच्ची से गर्भ में ही छूटकारा पा लेने का फैसला लिया है।
दुनिया में शोषण के लिए लडी ज़ाने वाली सबसे बडी अौर लंबी लडाई आधी आबादी की है। आज मार्क्स जिंदा होते, तो वर्गयुध्द से ज्यादा जोर नारी-सशक्तीकरण की ओर दिए होते। औरत पर जुल्म की शुरुआत कहीं और से नहीं, बल्कि घर की चहारदीवारियों से ही होती है। घर में भेदभाव को नजदीक से महसूस करने वाली बालिका को हर बात पर मां-बाप की उलाहना सुननी होती है। पढाई से लेकर खाने-पीने और रहने-सहने तक। अगर शिक्षा की ही बात करें तो सबसे ज्यादा अनुपात विद्यालय छोडने वालों में बालिकाओं का ही होता है। जब ये नारी घर की दहलीज से बाहर ससुराल में कदम रखती है, तो सास-ससुर के प्रति वही उपेक्षा का भाव महसूस करती है। एक बात जो अक्सर दिल को कचोटती है कि शादी के बाद महिलाओं को ही घर की दहलीज क्यों छोडनी होती है? लेकिन उपभोक्तावादी समाज ने कुछ दूरियां जरूर मिटाई हैं। एक बात जो भारतीय समाज में सदियों से कही जाती रही है कि बेटा ही बुढापे में आखिरी सहारा होता है, रोजगार की तलाश में घर छोडक़र परदेश चला जाता है। ऐसे में मां-बाप बुढापे में या तो ओल्ड एज होम में शरण पाते हैं या फिर घर की सुनसान दीवारों के बीच जिंदगी बिताने को मजबूर होते हैं। शहरों में बसने की प्रवृत्ति ने लडक़ों को ही घर से दूर नहीं किया, बल्कि लडक़ियों को भी बाहर निकाला है। अब लडक़े बुढापे का आखिरी सहारा नहीं होते और न ही लडक़ियां पराया धन।
एक बात और जो लडक़ों के बारे में कही जाती थी कि जितने हाथ, उतने काम। यह धारणा भी धीरे-धीरे टूटी है। शहरातियों में यह चलन बढा है कि अब वे एक या फिर दो बच्चों की ही लालसा रखते हैं और वो भी लडक़े, ताकि दहेज न देना पडे। लेकिन आज लिंगानुपात के कारण हरियाणा, पंजाब में जो कुंआरों की समस्या बढी है, उम्मीद की जाती है कि कुछ अरसे बाद लडक़ियों को दहेज देने का चलन शुरू होगा। अर्थशास्त्र के साधारण मांग-पूर्ति के नियम से भी यह बातें सच के नजदीक दिखती हैं। देखना है कि यह बदलाव कितने साल बाद समाज की मुख्य धारा में जगह बना पाता है।
समाज में एक तबके की सोच है लड़की मरै घड़ी भर दुख, लड़की जिए तो जनम भर दुख। ऐसे लोग अगर अल्ट्रासाउंड के लिए जाते हैं तो किस्म-किस्म की बातें सुनने को मिलती हैं। अरे क्या बताएं जनाब, 'बेटा बताया था बेटी हो गई, लायक नहीं हैं फिर भी अल्ट्रासाउंड मशीन चला रहे हैं पता नहीं कैसे-कैसे लोग डॉक्टर बन जाते हैं? अब ऐसे आदमी को क्या पता कि वो अल्ट्रासांउड करने वाला ही है, कोई एमबीबीएस नहीं, जो पैसा कमाने के लिए इस धंधे में उतर आया है। भ्रूण-परीक्षण के बाद एबार्शन क्लीनिक की दुकान भी तो चलनी है, इसलिए ऐसे मामले में अल्ट्रासाउंड वाले भी चालाक होते हैं, अधिकांश मामलों में बेटी ही बताते हैं। ऐसे में समाज में होनेवाली हर भ्रूण-हत्या कानून को आईना दिखाती है। गलती कानून में नहीं, कार्यान्वयन के तंत्र में हैजो भ्रष्टाचार की बैट्री से संचालित होता है, इसलिए कोख में तलवार जा रही है। जिन्हें मां की गोद में होना चाहिए था या पालने में कूडेदानों में मिल रहे हैं।

No comments:

Post a Comment