Friday, May 28, 2010

बेलगाम होती खाप

इन गांवों में जोडियां ऊपर से बनकर नहीं आती, सब कुछ पंचायतों में तय होता है। यहां प्रेम पर इन तालिबानियों का कडा पहरा है। हुक्के की गुडग़ुडी पंचों के बीच सुलगती-बुझती रहती है और उसी के साथ गांववालों की सांसें भी चढती-उतरती हैं।
मनोज-बबली की मौत के बाद से तो ऐसा लगता है मानो हर घर के आंगन में खाप पंचायतें मौजूद हों। महेंद्र सिंह टिकैत, चौटाला एवं नवीन जिंदल भी इसके दरबार में हाजिरी लगाने आते हैं। फैसला सुनाते समय खाप पंचायतों के बूढे शेरों के हाथों की ऊंगलियां सिकुड ज़ाती हैं और खूनी पंजे बाहर निकल आते हैं। मुंह रक्त से सन जाता है और इन पंचायतों की रवायत को जिंदा रखने के लिए नरबलि की जरूरत महसूस होने लगती है। ऐसे में ही कोई मनोज-बबली इनके शिकार होते हैं, तो कोई और गरीब।
यह हिन्दुओं का कबिलाई तालिबान है। यहां सगोत्रिय शादियों को लेकर मौत के फतवे जारी किए जाते हैं और हरकारे हुक्म की तामिल के लिए दौड पडते हैं। ऐसा लगता है कि आप मध्य युग के किसी गांव में पहुंच गए हों। इन गांवाें पर लक्ष्मी की विशेष कृपा-दृष्टि रही है। लेकिन ऐसा लगता है शहराती बनने के क्रम में यह गांव कहीं ठहर सा गया हो। खाप पंचायतें अलगू चौधरी और जुम्मन शेख की पंचायतें नहीं होती, जहां पंच परमेश्वर माना जाता था। इन गांवों में जोडियां ऊपर से बनकर नहीं आती, सब कुछ पंचायतों में तय होता है। यहां प्रेम पर इन तालिबानियों का कडा पहरा है। हुक्के की गुडग़ुडी पंचों के बीच सुलगती-बुझती रहती है और उसी के साथ गांववालों की सांसें भी चढती-उतरती हैं।
मनोज-बबली की मौत के बाद से तो ऐसा लगता है मानो हर घर के आंगन में खाप पंचायतें मौजूद हों। महेंद्र सिंह टिकैत, चौटाला परिवार एवं नवीन जिंदल भी इसके दरबार में हाजिरी लगाने आते हैं। फैसला सुनाते समय खाप पंचायतों के बूढे शेरों के हाथों की ऊंगलियां सिकुड ज़ाती हैं और खूनी पंजे बाहर निकल आते हैं। मुंह रक्त से सन जाता है और इन पंचायतों की रवायत को जिंदा रखने के लिए नरबलि की जरूरत महसूस होने लगती है। ऐसे में ही कोई मनोज-बबली इनके शिकार होते हैं, तो कोई और गरीब।
खाप पंचायतें 5 से 20 गांवों तक की पंचायतें होती हैं। इसका आगाज लोगों को तब होता है जब गांव के चौपाल पर चारपाइयां बिछनी शुरु हो जाती है। हुक्के की चिलम तैयार किया जाने लगता है।
आस-पास के गांवों के लोग सुबह से जुटने लगते हैं, तब लोगों की समझ में आता है कि आज किसी गरीब के तकदीर का फैसला होना है। गांव में जमींदार किस्म के लोग जो दबंग जातियों से होते हैं एवं बडे-बूढे पंच की जगह आसीन होते हैं। तब शुरु होता है जनसुनवाई का दौर, जिसका आतंक तथाकथित अपराधी के लिए किसी मध्ययुगीन न्यायालय से कम नहीं होता। न्यायालय तो इक्का-दुक्का मामलों में ही फांसी की सजा सुनाती है, लेकिन यहां का हर फैसला नरबलि की मांग करता है। दोनों पक्षों को सजा सुनाई जाती है और उसकी तालिम के लिए गांव के लोग हाथ बांधे खडे होते हैं, कुछ मामलों में तो परिवार वाले भी। इन्हें गांव से जाति-बिरादरी से बाहर निकाले जाने का डर सताता रहता है, हुक्का-पानी बंद होने का मतलब होता है घर में लडक़ियों की शादी तक का न होना। तो ये है दबंग पुरुषों की पंचायत, जहां दलितों, महिलाओं एवं युवाओं के भाग्य का फैसला सुनाया जाता है।
इन खाप पंचायतों का सच तो तब सामने आता है, जब गांव की नामचीन शादियां चाहे सगोत्रीय हों या विधर्मी में ये उनकी शान में कसीदे पढते नजर आते हैं। जब राजेश पायलट के बेटे सचिन पायलट ने फारुक अब्दुल्ला की बेटी से शादी की, तो गुर्जरों की पंचायत का कौन ऐसा बडा चेहरा था, जो वहां नहीं गया। तब इन कठमुल्लाओं ने क्यों फरमान नहीं जारी किया? पति-पत्नी को भाई-बहन बनाना, हत्या एवं बर्बर सजाएं-क्या ये महज संयोग हैं कि इनका शिकार केवल वही लडक़े-लडक़ियां हुए जो छोटी हैसियत वाले थे। यह खाप का कौन सा चेहरा है? यह तो वही बात हुई कि समरथ को नहीं दोष गुसाईं। यानी जो ताकतवर लोग हैं, वही समाज के नियम, कायदे-कानून तय करें और गरीबों को बताएं कि तुम्हें इसी राह पर चलना होगा। मनोज-बबली हत्याकांड में शामिल गुनहगारों को जब न्यायपालिका ने मौत का फरमान जारी किया, तब एक बार फिर इनका विद्रूप चेहरा लोगों के सामने था। इन पंचायतों ने कोर्ट के फैसले का विरोध करते हुए गुनहगारों की मदद के लिए लोगों से आगे आने की अपील की। हिन्दू विवाह अधिनियम में बदलाव किए जाने के लिए ये राजनेताओं पर दवाब भी डाल रहे हैं ताकि संसद में इस मुद्दे पर बहस शुरु की जा सके। हरियाणा, पंजाब में खाप पंचायतों के वर्चस्व के कारण शायद ही कोई नेता हो, जो इनके विरोध करने का साहस जुटा पाता है। यही कारण है कि कभी नवीन जिंदल कांग्रेस नेतृत्व का विरोध करते हुए भी इन पंचायतों का समर्थन करते नजर आते हैं, तो कभी इनेलो और भाजपा। ये नेता भी उसी गांव से निकलकर आते हैं, परंपराओं के नाम पर वे भी मौन साध लेते हैं। बहुसंख्यक लोगों को नाराज कर चुनाव नहीं जीता जा सकता। लेकिन कुछ नेताओं को हाईकमान के आदेश का पालन करते हुए सुबह दिया गया समर्थन रात तक वापस लेने के लिए मजबूर होना पडता है।
वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि एक ही गोत्र में विवाह से होने वाले बच्चों को वंशानुगत रोगों का सामना करना पड सकता है। गोत्र का मतलब एक ही जाति के लोगों के बीच भाईचारे की भावना को बढाना रहा है। कॉमरेड नीलोत्पल बसु का मानना है -'हिन्दू मैरिज एक्ट में बदलाव की मांग का समाज-सुधार से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह सामाजिक दबदबा कायम रखने के लिए किया जा रहा है।' जातिगत श्रेष्ठता का दंभ ही ऐसे दकियानूसी विचारों को जन्म देता है। समाज बनने की प्रक्रिया में बहुत सी आधी-अधूरी परंपराएं समय के प्रवाह में पीछे छूट जाती हैं। सती-प्रथा, बाल-विवाह के विरोध के समय भी कुछ ऐसे दकियानूसी लोग सामने आए थे, लेकिन अंतत: इन बुराईयों को मानने से समाज ने इंकार कर दिया। हो सकता है कि इस तर्क के पीछे वैज्ञानिक आधार हो, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि इन परंपराओं को जीवित रखने के लिए किसी जीवित इंसान की बलि दी जाए। समाज में वर्ग के आधार को झूठलाने वाला तबका अमीर राजनेताओं एवं दबंगों के विधर्मी या सगोत्रिय शादियों का खुलकर विरोध करने का साहस क्यों नहीं जुटा पाता? इन गावों में अक्सर ये बात कहते लोग मिल जाएंगे-भई क्या करें, छोरे तो हाथ से निकल गए, छोरियों को पकड कर रखो। यहां पकडने से उनका मतलब सामाजिक ताने-बाने, धार्मिक संस्कारों, रीति रिवाजों में बांध कर रखने से है। खाप पंचायतों में आज भी गांव के बडे-बुजुर्गों का दबदबा होता है। दलितों, महिलाओं एवं युवाओं को खाप पंचायतों में कोई जगह नहीं दी जाती। देखा गया है कि जिन इलाकों में खाप पंचायतों का दबदबा है, लडक़ियों एवं दलितों को दोयम दर्जे का ही माना जाता है। महिलाएं घरों एवं खेत-खलिहानों में मेहनत-मजदूरी करती हैं, पुरुष चौपाल में बैठकर हुक्के का आनंद लेते हैं। गाय खिलाने से लेकर उनके लिए चरी लाने तक का काम महिलाओं के जिम्मे है। कन्या-भ्रूण हत्या के मामले में भी ये राज्य दूसरों से कहीं आगे हैं। गांव में छोरों के सामने सबसे ज्यादा समस्या शादी के लिए लडक़ी खोजने की होती है। जैसे-जैसे गांव बसते गए, रवायतें भी बनती गईं। धीरे-धीरे अन्य गोत्र के लोग भी आकर गांव में बसने लगे। गांव के साथ आस-पास के गांवों में भाईचारा होने के कारण समान गोत्र में शादी का विरोध भी इसी रवायत का हिस्सा बनती गई।
अगर किसी न इसके खिलाफ शादी करने का दुस्साहस किया तो गांव से हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता है और अल्टीमेटम देकर गांव छोड देने की धमकी दी जाती है। आज परंपराओं को जिंदा रखने के नाम पर हिन्दू तालिबानी एकजुट हो रहे हैं। इनके लिए देश का कानून, न्याय, संविधान कोई मायने नहीं रखता।
ये परंपराओं की गोद में जीने वाला समाज है, जो आधुनिकता को गले लगाते हुए भी कुछ पुरानी चीजों को छोडने का लोभ नहीं छोड पाता। लोकतंत्र में जब अलगाववादियों एवं आतंकवादियों को भी वार्ता के टेबल पर लाया जा सकता है , तो फिर यह समाज भी मिल-जुलकर मामलों को क्यों नहीं सुलझाता? लेकिन कोई भी तालिबानी फैसला जो गरीब लोगों की बलि लेता हो- को सभ्य समाज मान्यता नहीं दे सकता। लेकिन ये गरीबों के लिए तालिबान है, ताकि वे धर्म, जाति की जकडन में उलझे रहें और कोई मार्क्सवादी इन्हें धर्म को अफीम बतलाकर न बरगला सके।

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