Friday, May 28, 2010

जनगणना या जातिगणना

चन्दन राय
मंडल आयोग रिपोर्ट ने 1990 में जाति के आधार पर आरक्षण लागू कर पूरे देश को थर्रा दिया था। सरकार को गरीब और पिछडी ज़ातियों की संख्या के बारे में जानकारी नहीं थी। फिर भी सरकार की ओर से बडे-बडे दावे किए जाते रहे। अब देश की सर्वोच्च पंचायत में आधी आबादी को आरक्षण दिए जाने की मांग उठी है। लेकिन सरकार अंधेरे में तीर चलाने की कवायद में मशगुल है। फिर कोटे के अंदर कोटे की बात भी तभी मानी जा सकती है, जब सही आंकडे उपलब्ध हों। लोगों के जाति और धर्म के सही आंकडें हों, उनकी सामाजिक एवं आर्थिक हैसियत का अंदाजा हो, तो शायद आज आरक्षण का लाभ उन लोगों को मिल रहा होता जो समाज की सबसे अंतिम कतार में खडे हैं। गांधी का अंतिम आदमी कल भी भूखा था और आज भी उसकी थाली में रोटी नहीं है। कल अगडों ने उसका हक छीना था, तो आज पिछडों में अगडों ने लंगडी मारी है। पिछडों में मलाईदार तबके का सही अनुमान नहीं होना ही उनकी भूख के लिए जिम्मेदार है। आज जाति को हम देश की राजनीति से अलग नहीं कर सकते। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि राजनीतिक पार्टियां निर्वाचन क्षेत्र में बहुसंख्यक जाति के आधार पर ही उम्मीदवारों का चुनाव करती हैं। यही कारण है कि लोहिया की विरासत को ढोने वाले कभी क्षत्रिय महासभा, कभी वैश्य महासभा, तो कभी कायस्थ महासभा का हिस्सा बन गर्व महसूस करते हैं। लोहिया के जाति हटाओ अभियान का अर्थ नेताओं ने यही निकाला कि अपनी नहीं, बल्कि दूसरी जाति के लोगों को हटाना है। गैरजातीय या विधर्मी शादी करने वालों का क्या अंजाम होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। आरक्षण लागू होने के बाद स्थितियां बदली हैं, कुछ जातियां ऊपर उभर कर आई हैं, तो कुछ आज तक सिर नहीं उठा सकी हैं। कुछ जातियों को शामिल किया जाना है, तो कुछ को इस बिरादरी से बाहर भी करना है। लेकिन सरकार को इसके खतरे का अंदाजा है। विपक्ष जातिगत गणना के आधार पर कुछ नए लोगों के लिए आरक्षण की मांग कर सकता है। यही कारण है कि गृहमंत्री जी के पिल्लई ने पहले ही इस बात की घोषणा कर दी कि जाति को इस जनगणना में शामिल नहीं किया जाएगा।
15वीं जनगणना का काम जोर-शोर से चल रहा है। देश के करीब 25 लाख अधिकारी पहली बार सरकारी आवास से निकलकर गरीबों के झोंपडे तक जाएंगे। वे धर्म, भाषा, आमदनी, लिंग, आयु, साक्षरता, सामाजिक और आर्थिक स्थिति के बारे में तो पूछेंगे। लेकिन सोलहवां मानक जाति के बारे में पूछने की जहमत नहीं उठाएंगे। राजनीतिक पार्टियां इस सोए हुए जिन्न को हमेशा जगाकर नहीं रखना चाहती। वे चाहती हैं कि जाति रूपी कुंभकर्ण पांच साल में एक बार जगे और फिर गुफा में चैन की नींद सो जाए। हालांकि 1931 के जनगणना में अंग्रेजों ने एक बार ये गलती की थी। तब से इन्हीं आंकडाें का उपयोग सरकार अपनी सामाजिक एवं आर्थिक योजनाओं को लागू करने में करती रही है। हालांकि इसकी विश्वसनीयता पर सवाल 1931 से ही उठते रहे हैं। अभी केंद्र सरकार ने आईआईटी, आईआईएम में इस आधार पर आरक्षण देने से मना कर दिया था कि उनके पास पिछडों की वास्तविक संख्या की जानकारी नहीं है। तो क्यों न हम एक बार इस बात को तय कर ही लें कि हमारे देश में किस जाति के कितने लोग रह रहे हैं? उनकी सामाजिक और आर्थिक हैसियत क्या है? कितने लोगों का हाथ पकडक़र साथ लाने की जरुरत है तो कितनों को अपने पैरों पर चलने के लिए छोड देना है?
राजद प्रमुख लालूप्रसाद यादव ने कहा कि इससे समाज के सभी वर्गों की पहचान करने में तो सहूलियत होगी ही, साथ ही उनके लिए योजनाएं बनाने एवं आरक्षण का प्रावधान करने में भी आसानी होगी। इससे सही व्यक्ति तक लाभ पहुंच सकेगा। लेकिन सरकार को इस बात का डर है कि अगर इस सोए हुए शेर को छेडा गया, तो स्थिति बिगड ज़ाएगी। एक बार यों ही सच्चर कमिटी की रिपोर्ट ने उसे शर्मसार कर छोडा है। अल्पसंख्यकों की हालत का अंदाजा होने पर दूसरे धर्म के कट्टरपंथियों का दिल भी पसीज गया, लेकिन सरकार बेशर्मी की चादर ओढे रही। सरकार की लाल कालीन के नीचे पडी यह रिपोर्ट रोज सरकारी अफसरों के पैरों तले रौंदी जा रही है। कुछ ऐसा ही हाल अर्जुन सेनगुप्ता रिपोर्ट का हुआ। गरीबी की भयावह तस्वीर सामने आने के बाद हमारे हुक्मरान इस बात में उलझे रहे कि उन्हें इकोनॉमी क्लास में सफर करना है या बिजनेस क्लास में। लेकिन गरीबों के कल्याण के लिए सरकारी योजनाएं बनाने वाली सरकार को तो शर्मसार होना ही चाहिए जो भोजन का अधिकार तो देती है, तो वहीं गरीबों की संख्या कम करने की जुगत में सरकारी अमलों को लगा देती है।
देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था के विचार को भी जानना जरूरी है। तमिलनाडु की राजनीतिक पार्टी पीएमके ने यह तर्क देते हुए कि कई विकास और कल्याण योजनाओं के संचालन के लिए जातिवार गणना आवश्यक है, सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज करते हुए कहा कि इससे जातीय संघर्ष बढेग़ा। हालांकि याचिका में यह तर्क दिया गया था कि भारत में कौटिल्य के अर्थशास्त्र से लेकर 16वीं-17वीं सदी एवं ब्रिटिश शासनकाल में भी जातिगत जनगणना का जिक्र है। भारत न केवल राज्यों का संघ है वरन कई जातियों, जनजातियों और समुदायों का संगम भी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जनगणना को विकास कार्यों के संबंध में योजना बताने के लिए जरूरी बताया है। लेकिन किनके विकास कार्यों के लिए? क्या शहरों में फ्लाईओवर या मॉल कल्चर को बढावा देने से ही अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछडी ज़ातियों का भला हो जाएगा? अगर आर्थिक और सामाजिक उत्थान के लिए जनगणना जरूरी है, तो उन जातियों की संख्या के बारे में जानकारी होनी भी जरूरी है, जिनको विकास कार्यों में जगह देना है। सिर्फ आम जनता को विकास कार्यों के भुलावे में रखकर चुनाव के समय जाति के प्रेत का आह्वान करने भर से ही कल्याण नहीं होने वाला। वामपंथियों को छोड दें तो देश में शायद ही कोई ऐसी पार्टी होगी जो जातिगत समीकरण में न उलझी हो। यानी राजनीतिक पार्टियों का विरोध जातिवाद हटाओ न होकर, जाति आधारित जनगणना तक ही है।
क्या सरकार इस बात का आश्वासन देगी कि छत्तीसगढ क़े सुदूर जंगलों में भी जनगणना का कार्य संभव हो सकेगा? 2001 के जनगणना में गडबडी क़ी ओर इशारा करते हुए वहां लोगों ने आरोप लगाया है कि पिछली जनगणना में बस्तर के 564 गांवों को वीरान बता दिया गया। उम्मीद है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में जनगणना का कार्य जैसे-तैसे निपटा दिया जाएगा। आदिवासियों की संख्या को कम बताया जाना एक साजिश के तहत किया जा रहा है, ऐसा स्थानीय लोगों का कहना है। होता यही है कि आदिवासियों की आबादी के आधार पर ही विकास योजनाओं के लिए राशि स्वीकृत होती है। यों भी ऐसे बीहड ऌलाकों में जाने की जहमत शायद ही कोई सरकारी अधिकारी उठाते हैं। यही कारण है कि सैकडों गांवों के बारे में यह बता दिया जाता है कि नक्सलियों के कारण या तो लोग गांव छोडक़र चले गए हैं या शिविरों में रह रहे हैं। अगर मानव इतिहास की सबसे बडी ज़नगणना का यही सच है, तो आने वाले आंकडे भी सवालिया घेरे में ही नजर आते हैं। चुनाव में प्रत्याशी चुनने से लेकर, निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव तक और जीतने के बाद प्रदेश में जातीय समीकरण को संतुलित करने के लिए मंत्रिमंडल में उचित प्रतिनिधित्व देने तक नेताओं के दिमाग में जाति का समीकरण ही हावी होता है। आरक्षण के नाम पर भी राजनीतिक दलों ने कुछ पिछडी ज़ातियों को खुश रखने की कोशिश की। यही कारण है कि तगडी पिछडी ज़ातियों को भी आरक्षण में उतना ही हक दिया गया, जितना कि जूता सिलकर गुजारा करने वाले एवं रिक्शा चलाकर पेट पालने वाले का। लेकिन जब कुछ पिछडी ज़ातियों ने विरोध का स्वर तेज किया, तो उन्हें भी आरक्षण का झुनझुना थमाने में परहेज नहीं किया। महिलाओं में भी जातिगत आरक्षण की मांग उठाकर लालूप्रसाद यादव ने एक बार फिर अपनी राजनीतिक गोटी सेट करनी चाही। सरकारी नौकरी से लेकर प्राइवेट संस्थानों तक में जाति आधारित आरक्षण की मांग उठती रही है। जब जाति हमारे देश की राजनीति एवं समाज में इतने गहरे पैठ चुकी हो, तो फिर जातिगत जनगणना से परहेज क्यों? ये तो वही बात हुई कि गुड ख़ाएं और गुलगुले से परहेज। क्या सरकार को इस बात का डर है कि एक बार फिर जातिगत आंकडाें का सच उसके रातों की नींद न छीन ले?

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