Friday, May 28, 2010

मेरी भूख को ये जानने का हक है

चन्दन राय
नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कभी कहा था कि अगर सरकारी संस्था 'भारतीय खाद्य निगम' के गेहूं और चावल के सभी बोरों को एकसाथ रख दिया जाए तो यह ढेर चांद तक पहुंच जाएगा। भारतीय खाद्य निगम खाद्यान्नों के खरीद एवं वितरण के साथ भंडारण भी करती है ताकि संकट के समय इनका इस्तेमाल किया जा सके। वहीं दूसरी तरफ गरीबों को सस्ते में अनाज बांटने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली है। फिर भी हमारे यहां खाद्यान्न संकट बना रहता है। देश के हर राज्य में कई विदर्भ, बुंदेलखंड हैं जहां गरीब अनाज के अभाव में दम तोड रहे हैं। भारत में हर साल करीब 76 मिलियन टन गेहूं और 96 मिलियन टन चावल का उत्पादन होता है। जबकि खपत 72 मिलियन टन और 91 मिलियन टन ही हैं। हमारे पास इतना अनाज है, कि हम अपना पेट भरने के अलावा कुछ और देशों का भी पेट भर सकते हैं। फिर भारत भूखा क्यों है? जी हां, भारत में अभी भी 42 करोड से ऊपर ऐसे लोग हैं, जिन्हें भरपेट खाना नहीं मिलता। तो इनकी भूख के लिए जिम्मेदार कौन है? सरकार या भारतीय खाद्य निगम या फिर सार्वजनिक वितरण प्रणाली। इसी पर सवाल खडे क़रते हुए चारुल-विनय महाजन ने लोकगीत में गाया है : मेरी भूख को ये जानने का हक रे, क्यों गोदामों में सडते हैं दाने, मुझे मुट्ठी भर धान नहीं।
अनाज के कुप्रबंधन को लेकर विपक्ष भी संसद से लेकर सडक़ तक हंगामे पर उतारू है। भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में करीब 400 लाख टन गेहूं व चावल सड़ रहे हैं। सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी मिली कि पिछले एक दशक में करीब सैकडों करोड रुपए के अनाज सरकारी गोदामों में सड ग़ए। इस अनाज से एक साल तक एक करोड से भी ज्यादा लोगों की भूख मिटाई जा सकती थी। भारत में ये स्थिति तब है जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि भारत के 63 प्रतिशत बच्चे भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं। ऐसी स्थिति तब है, जब निगम अनाजों के सही भंडारण के लिए 245 करोड रुपए अलग से खर्च कर चुकी है। यहां तक भी होता तो गनीमत थी, इन सडे अनाजों को निबटाने पर भी निगम को तीन करोड रुपए खर्च करने पडे। क़ेंद्र सरकार लोगों को अनाज बांटने की बजाय चुप्पी साधे हुए है। जबकि गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या 42 करोड क़े करीब है। सरकार गरीबों की संख्या की लडाई में ही उलझी है और गरीब अनाज की कमी के कारण दम तोड रहे हैं। सरकार इस बात को लेकर परेशान है कि एक गरीब को कितना अनाज दिया जाए, दूसरी तरफ सरकारी गोदामों में चूहे अनाज खाकर दंड पेल रहे हैं। हर साल जितना अनाज गोदामों में सड ज़ाता है या चूहे खा जाते हैं, भारत की भूख समाप्त करने के लिए पर्याप्त है।
केंद्र का कहना है कि हर राज्य का खाद्यान्न कोटा निर्धारित किया हुआ है। राज्य सरकारें उस कोटे को समय पर नहीं उठाती। यही कारण है कि गोदामों में अनाज सड ज़ाता है। राज्य सरकार कुछ अलग ही दलील देते हैं कि हम अनाज क्यों उठाएं, जब सरकार द्वारा निर्धारित कीमतों से कम में अनाज बाजार में उपलब्ध हो। पंजाब के सरकारी गोदामों का भी ऐसा ही हाल है। खुले में रखने के कारण लाखों टन अनाज हर साल सड ज़ाते हैं। पंजाब देश में गेहूं की सबसे बडी मंडी है। पंजाब की कई एजेंसियां यहां की अनाज मंडियों से अनाज खरीदकर अपने गोदामों में स्टॉक कर लेती हैं। इसके बाद इन अनाजों को केंद्रीय एजेंसियां खरीदती हैं। लेकिन पिछले कई वर्षों से पंजाब के गोदामों से अनाज नहीं उठाया जा रहा है। नई अनाज की फसलें आती जा रही हैं और पुरानी गोदाम में पडी हैं। आज हालात ये हो गए हैं कि ये अनाज पडे-पडे सड ग़ए हैं और लोगों के खाने लायक नहीं रह गए हैं। ये अनाजों के पहाड सरकारी कुप्रबंधन के कारण आज गरीबों की थाली तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों की जिम्मेदारी बनती है। सब सरीके जुर्म में बराबर के गुनहगार हैं।
अनाज हर इंसान की बुनियादी जरूरत है। तन ढंकने के लिए कपडे न हों, सिर पर छत न हो, तो भी गुजर-बसर कर ही लेते हैं। लेकिन रोटी के बिना लोग कैसे जीएं। महाराष्ट्र सरकार ने इसका एक नायाब तरीका ढूंढ़ निकाला है। वहां अनाज से शराब बनाए जाने के लाइसेंस कंपनियों को दिए जा रहे हैं। इसके लिए अनाज को पहले सडाया जाएगा, फिर उसे शराब बनाकर गरीबों के बीच बेचा जाएगा। महाराष्ट्र में गरीब लोग झुनका-भाकर खाकर ही अपने परिवार का पेट भरते हैं। कई परिवार ऐसे हैं, जिन्हें यह सस्ता राशन भी नसीब नहीं होता। अनाज से शराब बनाने के लिए कंपनियों की नजर गरीबों के इसी निवाले पर है। गरीब भले ही ज्वारी से बने रोटी नहीं खा पाए। लेकिन गरीबी को दूर करने के लिए शराब तो पी ही सकता है। यह उस राज्य की हालत है जहां के विदर्भ इलाके में किसान कर्ज एवं भूखमरी से दम तोड रहे हैं। कुछ ऐसी ही सोच लुधियाना के सरकारी गोदामों की भी है। यहां अनाजों को खुले में निकाल दिया गया और गोदामों के अंदर शराब के कट्टे रखवा दिए गए। आज सरकार से यह कोई नहीं पूछ रहा कि जब जनता के लिए खाने के लिए अनाज नहीं है, तो फिर शराब क्यों?
कुछ इसी बात का जवाब क्यूबा के राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने कुछ अलग संदर्भ में दिया था, लेकिन आरोप वही थे। विश्व में खाद्यान्न संकट के लिए अमरीका को जिम्मेदार बताते हुए कहा था कि 'अमेरिका अनाज की कीमतों में कृत्रिम तेजी ला रहा है और इससे वैश्विक स्तर पर अकाल भी पड़ सकता है।' जबकि विश्व में खाद्यान्न संकट के लिए कुछ समय पहले अमरीका ने भारत,चीन जैसे देशों को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा था कि दुनिया में खाद्यान्न संकट के लिए भारत जैसे देशों में भरपेट खाना जिम्मेदार है। कास्त्रो के इस तर्क के पीछे अमरीकी उपभोक्तावाद तो एक कारण था ही। साथ ही उन्होंने इस बात की ओर भी इशारा किया था कि वहां अनाज से बायो ईंधन तैयार किया जा रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार गाडी में 50 लीटर का टैंक भरने में 232 किलो मकई या गन्ने का रस बर्बाद हो जाता है। किसान भी अनाज पैदा कर मोटे मुनाफे के कारण इन कंपनियों को बेच रहे हैं, जिससे खाद्यान्न संकट पैदा होने की स्थिति हो गई है। यही कारण है कि अनाज संकट और गहराता ही जा रहा है। अमरीका तो अपना सरप्लस अनाज समुद्र में फेंकता रहा है। एक तरफ किसानों को सब्सिडी देना और दूसरी तरफ बंपर स्टॉक पैदा होने पर अनाज को समुद्र में फिंकवा देना अमरीका की नीति ही हो सकती है। लेकिन महाराष्ट्र सरकार तो इनसे भी कई कदम आगे निकल चुकी है। अमरीका तो बायो ईंधन बनाने की सोच रहा है, जबकि महाराष्ट्र सरकार तो गरीबों की थाली से अनाज छीनकर शराब माफियाओं को भेंट करने की सोच रही है।
सरकारी नीतियों एवं भारतीय खाद्य निगम के भंडारण के बाद अगर बचा-खुचा अनाज सार्वजनिक वितरण प्रणाली के पास आता भी है, तो बाजार की भेंट चढ ज़ाता है। भारत में गरीबों तक सस्ते दर पर अनाज पहुंचाने के लिए देश भर में पीडीएस के तहत इसका वितरण किया जाता है। लेकिन देश के सबसे भ्रष्ट तंत्र में शुमार हो चुका पीडीएस का पूरा सिस्टम ही ध्वस्त हो चुका है। अगर आज आप भ्रष्ट संस्थाओं में कंपटीशन करवा लें, तो पुलिस और पीडीएस सिस्टम में जंग होगी। तुलसी ने इनके लिए ही शायद लिखा होगाको बड छोट कहत अपराधू। ये अनाज गरीबों के घर तक जाने की बजाय बाजार पहुंच जाता है और फिर वहां से ऊंचे दाम चुकाकर गरीब अपना पेट पालता है। एक तरफ तो आम जनता महंगाई की मार से परेशान है और दूसरी तरफ मंडियों में पडा अनाज सड रहा है। महंगाई बढ़ने की सीधी मार गरीबों पर पड़ेगी क्योंकि उनकी आय का बड़ा हिस्सा भोजन में ही खर्च हो जाता है। जबकि अनाज (गेहूं और चावल) की प्रति व्यक्ति पैदावार वर्तमान में भी लगभग उसी स्तर पर है जितनी कि 1970 में हुआ करती थी। यह खाद्यान्न संकट की आहट है, जिसके बारे में चेताते हुए कभी हरित क्रांति के जनक नॉर्मन बोरलॉग ने कहा था कि हमें वर्ष 2050 तक वैश्विक खाद्य आपूर्ति को दोगुना करना होगा अन्यथा खाद्यान्न संकट भयावह रूप ले लेगा। केवल भारत की ही बात करें तो हमें 2020 तक भारी भरकम आबादी को भोजन उपलब्ध कराने के लिए 350 मिलियन मैट्रिक टन खाद्यान्न की जरूरत होगी। अनाज उत्पादन के साथ-साथ समुचित भंडारण की व्यवस्था होना एवं उस अनाज का गरीबों की थाली तक पहुंचना भी जरुरी है। क्या देश के कृषि मंत्री आईपीएल के ग्लैमर से निकलकर गरीबों की आवाज भी सुनेंगे।

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