Friday, May 28, 2010

लोकतंत्र के मंदिर में अपशब्दों का मंत्रपाठ

आ ज से करीब सौ साल पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के संसदीय लोकतंत्र को वैश्या बताने पर काफी हंगामा मचा था। गांधी जी ने यह टिप्पणी क्यों की, यह काफी विवाद का विषय हो सकता है क्योंकि इस कथन में वैश्याओं का अपमान छिपा है। इससे गांधी जी की संसद के प्रति मंशा जरूर जाहिर होती है कि वे उस समय संसद को कितना निकृष्ट मान रहे थे। ब्रिटिश महिलाओं ने इसको लेकर काफी हाय-तौबा भी मचाई थी। गांधी ने बाद में लोगों की तीव्र प्रतिक्रिया देखते हुए इसे बांझ महिला कहना ज्यादा उचित समझा। बात 1909 की है और आज हम लोकतंत्र का पंद्रहवां महोत्सव मनाने में मगन हैं। लेकिन आज सांसदों के आचरण को देखकर ऐसा लगता है कि गांधी की पहली प्रतिक्रिया ही ज्यादा सटीक और मारक थी। आज अजीज प्रेमजी, चेतन भगत, सचिन तेंदुलकर, शाहरूख खान, नारायण कार्तिकेयन, नारायण मूर्ति, महाश्वेता देवी सभी नई पीढी क़े रोल मॉडल हैं। लेकिन नेताओं के लिए बडे शर्म की बात है कि इनमें एक नाम भी सियासतदां लोगों का नहीं है। अभी आधी सदी गुजरी है, जब गांधी, पंडित जी, पटेल, नेताजी, लोहिया से लेकर जयप्रकाश नारायण तक की मूर्तियां लोग शौक से अपने ड्राइंग रूम में लगाना पसंद करते थे। लेकिन आज नेताओं की तस्वीरें वहां से गायब हैं। अगर कहीं मैडम या प्रधानमंत्री की तस्वीरें दिखती भी हैं तो नेताओं के दफ्तर में, ताकि सोनिया दरबार में उनकी हाजिरी बराबर लगती रहे।
आज संसदीय लोकतंत्र को सबसे बडा खतरा न तो विदेशी मुल्क से है और न हीं नक्सलियों से। देश के मंदिर को सबसे बडा खतरा तो यहां के पुजारियों और भक्तों से है। हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा-जब हर पार्टियों में बाहुबलियों को बुला-बुलाकर टिकट दिया जा रहा हो, तो संसद गाली-गलौज का अड्डा तो बनना ही था। आज राजनेता अपराधी नहीं हैं, बल्कि अपराधी ही राजनेता बनते जा रहे हैं। जब करोडाें रुपए खर्च कर चुनाव जीतेंगे, तो पांच साल तक तो उनका दिमाग स्विस बैंक की तिजोरियों में ही लगा होगा ना। देश के लिए यह शर्म की बात है कि हमारे माननीय सांसदों को संसद से खींचकर बाहर निकालने के लिए मार्शल बुलाने की जरूरत पडती है। जो देश चलाने का दावा करते हैं, वे चार मार्शलों के सहारे सदन से बाहर धकेले जाते हैं। आज आसन तक पहुंचकर ही उन्हें लगता है कि वे अपनी आवाज लोगों तक पहुंचा सकेंगे। राजद नेता लालूप्रसाद यादव ने एक बार लोकसभा अध्यक्षा मीरा कुमार की नाराजगी पर बोलते हुए कहा- ''हम लोगों का फैशन नहीं है कि आपकी सीट तक आ जाएं लेकिन जब कोई नहीं सुनता है तो नजदीक जाना पडता है। इसको अन्यथा न लें।'' लोकतंत्र तभी जीवित रह सकता है जब हम दूसरों के विचारों को भी सम्मान दें। विचारों से असहमति होने पर भी असहमति से सहमति तो दिखानी ही होगी। इसीलिए पुराने राजनेता इसे शासन पध्दति नहीं, बल्कि जीवन पध्दति मानते थे। वे यह समझते थे कि वाद-विवाद से ही तो संवाद की स्थिति बनेगी, जिससे आम लोगों की बेहतरी के लिए काम किया जा सकता है। लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं कि सभी दल आसन के पास जाकर जोर आजमाईश करें।
इन दिनों संसद में लालू जी फिर नाराज हैं। लालू जी नाराज हों तो संसद में कुछ न कुछ होता ही है। लोगों को अंदेशा था कि सदन एक बार फिर माननीय सांसदों पर होने वाले माइक और जूते-चप्पलों की बौछार का साक्षी बनेगा। लालू जी पहलवानी के अंदाज में लगभग बांह मोडते हुए भाजपा नेता अनंत कुमार की ओर बढे। लेकिन एकाएक जैसे लालू जी को अपने संख्या बल का ब्रह्मज्ञान हुआ और विपक्ष के समझाने पर वे चुप बैठ गए। लेकिन भाजपा नेता अनंत कुमार का गुस्सा शांत नहीं हुआ था। यह विवाद जनगणना में जाति का आधार शामिल करने को लेकर बहस के दौरान हुआ था। भाजपा संघ के प्रिय मुद्दे घुसपैठिए बांग्लादेशियों की राष्ट्रीयता के सवाल पर गरमा रही थी। लालू के टोका-टांकी पर अनंत कुमार ने उनकी ओर यह जुमला दागा कि पहले आप बताएं आप भारत के साथ हैं या बांग्लादेश या फिर पाकिस्तान के साथ। इतना कहना था कि लालू जी आपे से बाहर। वे यह भूल चुके थे कि इससे पहले महिला विधेयक पर चर्चा के दौरान उन्होंने माकपा नेता बासुदेव आचार्य को भी ऐसी ही धमकी दी थी। एक बार लालू जी के बयान पर गौर फरमाएं-''यहां तीन यादवों की बात हो रही है , हम सब अपनी अपनी पार्टी के सुप्रीम हैं.. आपके यहां तो सब सुप्रीम खत्म हो गया है। आप न तो पाकिस्तान में हैं और न ही भारत में। ''करीब-करीब आशय वही था जो अभी अनंत कुमार व्यक्त कर चुके थे। पर लालू ये बर्दाश्त कैसे करें कि कोई उन्हें गद्दार या राष्ट्रविरोधी कहे।
बासुदेव आचार्य इसके पहले तृणमूल कांग्रेस के नेता सुदीप बंदोपाध्याय के निशाने पर भी रह चुके हैं। मुंबई में मोटरमैन हडताल के मुद्दे पर जब मुंबई का माहौल गरमाता जा रहा था, जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था, माननीया रेल मंत्री कोलकाता में निगम के चुनाव में व्यस्त थीं। जब इसी को लेकर बासुदेव आचार्य ने सवाल खडे क़िए तो सदन में मौजूद सदस्य सुदीप बंदोपाध्याय की अशोभनीय टिप्पणी पर हक्के-बक्के रह गए। लालू-अनंत प्रकरण के पहले ही लोकसभा अध्यक्षा ने सुदीप बंदोपाध्याय की असंसदीय भाषा को लेकर फटकार लगाई थी। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था कि आसन सदन के किसी भी सदस्य के दोबारा ऐसा व्यवहार बर्दाश्त नहीं करेगा। लेकिन आखिर इसकी परवाह किसे थी? कभी पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने सांसदों के आचरण को लेकर सच ही कहा था कि आप लोकतंत्र को खत्म करने के लिए ओवर-टाइम काम कर रहे हैं।
इसके पहले भी सांसद सभापति के हाथों से महिला आरक्षण विधेयक की प्रतियां छीनकर फाड चुके हैं। इस हल्ले-हंगामे में सभापति का माइक भी उखड ग़या था। सपा के अन्य सांसद भी गुस्से में सभापति के आसन की ओर बढे। अंत में संसद की गरिमा बरकरार रखने के लिए मार्शल बुलाना पडा और उसके बाद जो कुछ हुआ, वह काफी शर्मनाक था। एक बात तो तय है कि अगर सांसदों का आचरण नहीं सुधरा तो लोग संसद की प्रासंगिकता पर ही सवाल खडे क़रने लगेंगे और तब लोकतंत्र के सचेतकों को भी बुरा नहीं लगेगा। अभी अगर संसद में लोगों से हाथ उठवा लें, तो आपको इक्के-दुक्के लोग ही मिलेंगे, जिनपर भ्रष्टाचार, गबन या आपराधिक मामलों का कोई केस न चल रहा हो। अभी कुछ दिनों पहले सभापति के बुलावे पर स्कूल के बच्चे लोकतंत्र का पाठ सीखने के लिए देश के सुपर पंचायत आए थे। हंगामों का दौर जारी था, सांसद लडने-भिडने की मुद्रा में आ चुके थे और उम्मीद थी कि कुछ समय बाद ही संसद की कार्यवाही को टाल दिया जाएगा। हुआ यही और लोकतंत्र की धुंधली तस्वीर अपने जेहन में लेकर ये बच्चे वहां से रुखसत हुए। क्या ये बच्चे बडे होकर कभी वोट देने के बारे में भी सोचेंगे? लोकतंत्र के प्रति युवा वर्ग की विरक्ति यही बताती है कि कोउ नृप होउ, हमें का हानि। इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार हमारे आज के राजनेता होंगे और कोई नहीं।
हम लोकतंत्र के सफर में एक ऐसे चौराहे पर आकर खडे हैं, जहां से आगे का रास्ता हमें नहीं सूझ रहा। रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था-''नेता का अब नाम नहीं ले, अंधेपन से काम नहीं ले, हवा देश की बदल गई है, चांद और सूरज ये भी अब, छिपकर नोट जमा करते हैं, और जानता नहीं अभागे, मंदिर का देवता चोर बाजारी में पकडा जाता है? फूल इसे पहनाएगा तू? अपना हाथ घिनाएगा तू?'' नेताओं को लेकर दिनकर की चिंता आज भयावह रूप ले चुकी है। आज जनता पीछे छूट गई और जनता के प्रतिनिधि कहां से कहां निकल गए?
तभी तो दिनकर आजादी के बाद ही नेताओं से सवाल पूछते हैं-''जनता की छाती भिदें, और तुम नींद करो, अपने भर तो यह जुल्म नहीं होने दूंगा, तुम बुरा कहो या भला, मुझे परवाह नहीं, पर दोपहरी मैं तुम्हें नहीं सोने दूंगा।'' यह हिसाब लगाना उचित नहीं कि संसद की कार्यवाही पर प्रति सेकेंड कितने लाख रुपए खर्च होते हैं और उन्हें कितना वेतन-भत्ता मिलता है जिसके लिए वे हमेशा लालायित रहते हैं, लेकिन जनता को यह पूछने का हक है कि आपने सुप्रीम पंचायत में हमारी कितनी मांगें रखीं। आपने बजट सत्र के 115 घंटे लडने-झगडने में क्यों बरबाद किए? आखिर भारत की भूखी-नंगी जनता ही तो उन्हें वेतन से लेकर तमाम सहूलियतें देती है, इसलिए मालिक को यह पूछने का हक है कि तुमने सही ढंग से काम क्यों नहीं किया? आज नहीं तो कल जनता इनका हिसाब लेगी और माननीय सांसदों को जवाब देना होगा।

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