Friday, May 28, 2010

जनादेश का चीरहरण

पार्टी छोड़ने और बदलने के सिलसिले को पहले 'आयाराम गयाराम' कहा जाता था। दल-बदलू एक तरह की गाली हुआ करती थी, आज नहीं है। चार धाम की यात्रा करने वाले तीर्थयात्रियों की तरह हमारे नेता भी यहां से वहां आते-जाते रहते हैं। उनका उद्देश्य येन-केन प्रकारेण सत्ता में आना और आ गए तो किसी भी तरह वहां बने रहने का प्रयास करना रह गया। नीतियां और कार्यक्रम केवल चुनावी घोषणापत्रों तक ही सीमित रहने लगे। सरकारें भी जनता से मिले जनादेश के आधार पर नहीं, बल्कि चुनावों के बाद दलों और सदस्यों के बीच होने वाली सांठ-गांठ, समझौते, सौदेबाजी, खरीद-फरोख्त, दल-बदल और पर्दे के पीछे सत्ता के लिए साझेदारी के आधार पर बनने-गिरने लगीं।
भारतीय राजनीति का एक काला चेहरा है दलबदल। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो यह लोकतंत्र का माखौल उडाना ही है, जहां नेता एक दल से चुनकर आते हैं परंतु अपने फायदे के लिए दल बदल लेते हैं। जिस जनता ने उसे चुना है उसके भावनाओं का जरा भी ख्याल नहीं करते ये नेता। दलबदल का नंगा नाच अभी लोगों को झारखंड में देखने को मिला। जनता ने किसी दल विशेष के लिए चुना था, आखिर नेताओं को किसने ये अधिकार दिया की वे दलबदल कर इस जनमत का अपमान करें। आज दलबदल ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है। इसकी हकीकत सूटकेस कांड में दिख ही चुकी है। लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए यह जरूरी है कि इसे पूर्णत: प्रतिबंधित कर दिया जाए। अगर किसी को यह लगता है की उसे दुसरे दल में जाना चाहिए तो वह इस्तीफा देकर पुन: जनता के पास जाए और पुन: स्पष्ट जनमत ले। किसी दल विशेष का सांसद या विधायक बनने का अवसर उसे जनता ने दिया है। अत: यह जनता का निर्णय है अत: इसे बदलने का अधिकार भी जनता को ही होना चाहिए। भारतीय राजनीति में दलबदल करना एक कोढ क़ी तरह हो गया है। सत्ता सुख पाने के लिए आज नेता कुछ भी करने को तैयार हैं। लोकतंत्र को मजाक बना दिया गया है। दल बदल कर पैसा कमाना सबसे सरल हो गया है। इतिहास गवाह है कि जनता ने विगत पचास वर्षों में केंद्र व राय सरकारों में ये तमाशा कई बार देखा। दलबदल के सहारे अपने जनमत को बिकते हुए खुलेआम देखा। दलबदल कानून के चलते अब नेता लोग थोक में बिकने लगे हैं। आज जरुरत यह है कि दलबदल कानून को निरस्त कर दलबदल को पूर्णत: अवैधानिक घोषित किया जाए। दलबदल जनता के मतों का खुला अपमान है अत: इसे पूर्णत: प्रतिबंधित किया जाए। यह कदम भारतीय लोकतंत्र की शुचिता के लिए एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगी।
झारखंड में गुरूजी ने जनता के साथ विश्वासघात करते हुए कभी भाजपा के पाले में जाने की घोषणा की, तो कभी कांग्रेस को पटाने में मशगूल रहे। उनकी यह राजनीतिक नौटंकी जारी रहती, लेकिन बात न बनती देख भाजपा ने समर्थन वापस लेना ही उचित समझा। हालांकि इससे पहले भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने भाजपा के अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में नई गठबंधन सरकार के गठन पर सहमति दिखाई थी। लेकिन मुख्यमंत्री शिबू सोरेन लगातार अपना बयान बदलते रहे और उनके इस बयान के बाद कि वे राय में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के भी संपर्क में हैं।, भाजपा के सब्र का बांध टूट गया। राय में राजनीतिक संकट एकाएक उस समय उठ खड़ा हुआ जब केंद्रीय बजट पर कटौती प्रस्ताव के दौरान शिबू सोरेन कांग्रेस के पाले में जा खडे हुए। एक अंदेशा यह भी था कि हो सकता है विधानसभा का चुनाव वे न जीत पाएं और ऐसा कर केंद्र में मंत्रिपद पर काबिज हो जाएं और बेटे हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री बना दें। गुरूजी ने तरह-तरह की राजनीतिक कलाबाजियां दिखाईं। कभी राय विधानसभा के बचे हुए 56 माह के कार्यकाल के दौरान 28-28 माह के लिए दोनों पार्टियों में सरकार बनाने पर सहमति के लिए राजी दिखे, तो कभी आदिवासी मुख्यमंत्री के नाम पर अडे। मामला जो भी हो, चुनाव पूर्व का राजनीतिक गठबंधन ही लोकतांत्रिक कहा जा सकता है, जहां जनता को यह पता होता है कि कौन सी पार्टी किसके साथ है? चुनाव के बाद जब धुर विरोधी पार्टियां हाथ मिलाकर सत्ता का बंदर बांट करती दिखती हैं, तो लोकतंत्र के प्रति एक वितृष्णा ही जन्म लेती है। ये तो वही बात हुई कि एक दूसरे के खिलाफ आप लडक़र आए और बाद में सत्ता के लालच में पाले बदल लिए। अगर कोई नेता व्यक्तिगत रूप से दल बदल करता है तो उसे अयोग्य ठहराने के लिए कानून है, लेकिन जब दल ही पाले बदलने लगें तो भला कौन सा कानून भारतीय लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए है।
उन दलों की पाला बदली में अगर कोई ठगा जाता है, तो वह है जनता। ऐसे में भारत का मौजूदा संविधान और कानून जनता की इच्छा के हिफाजत का कोई रास्ता नहीं दिखाता क्योंकि तब जनता बाहर होती है और माननीय अंदर। क्या ऐसी कोई संवैधानिक या कानूनी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए कि एक-दूसरे के खिलाफ जनादेश लेकर आए दल सत्ता के लिए गठजोड क़र लोक-इच्छा का अपहरण न कर सकें। हां, यह ठीक है कि खंडित जनादेश की स्थिति में मामला पेचीदा हो जाता है, यह भी ठीक है कि बार-बार चुनाव का बोझ इस देश की गरीब जनता पर नहीं डाला जा सकता। लेकिन क्या यह दोनों कारण इतने बडे हैं कि इसके लिए जनादेश का बलात अपहरण होने दिया जाए।
1985 में सत्ता संभालने के साथ ही राजीव गांधी ने 52वें संविधान संशोधन के जरिए देश के संसदीय लोकतंत्र की एक बड़ी बुराई दल-बदल पर अंकुश लगाने की कोशिश की थी। इस तरह दसवीं अनुसूची, जिसे आमतौर पर दलबदल विरोधी कानून कहा जाता है, को संविधान में जोड़ा गया था। मगर इस कानून में कमियां बरकरार हैं। इन्हीं का फायदा उठाकर नरसिंह राव ने अपनी अल्पमत सरकार को बचा लिया था। उसके बाद एनडीए सरकार ने 2003 में 90वें संशोधन के जरिए इस कानून को सख्त करने की कोशिश की थी। ऐसा नहीं है कि दलबदल किसी स्वार्थ के लिए ही किया जाता है। राजनीतिक अपराधी भी दलबदल करते हैं। आज विभिन्न राजनैतिक दलों के टिकट पर अथवा अपने व्यक्तिगत बाहुबल पर चुनाव जीतकर यह लोग आज हमारे देश की लोकसभा व कई विधानसभाओं में मौजूद हैं। एक पेशेवर अपराधी के दल-बदल का मकसद सत्ता या सिध्दान्त अथवा टिकट आदि देने दिलाने जैसी बातें न होकर केवल एक ही होती है कि आखिर उसके जीवन की गारंटी किस राजनैतिक दल की छत्रछाया में सुनिश्चित है। अपने इसी लक्ष्य के तहत आमतौर पर अपराधी लोग एक राजनैतिक दल का दामन छोड़कर दूसरे राजनैतिक दल का दामन थामने में लगे रहते हैं।
दलबदल विरोधी कानून कहता है कि अगर कोई संसद सदस्य या विधायक खुद पार्टी से इस्तीफा देता है तो उसकी सदस्यता भी खत्म हो जाती है। लेकिन अगर पार्टी निकालती है तो असंबध्द सदस्य के तौर पर उसकी सदस्यता बनी रहती है। संविधान विशेषज्ञ और जम्मू-कश्मीर के कांग्रेसी विधायक रवींद्र शर्मा कहते हैं, यह कानून राजनीतिक भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए बनाया गया था। सदन में वोटिंग के वक्त विधायकों के बिक जाने के कारण सरकारें अस्थिर हो जाती थीं। लेकिन यह कानून पार्टी की तानाशाही को भी स्वीकार नहीं करता। यदि किसी सदस्य को पार्टी से निकाला जाता है तो यह पार्टी का अंदरूनी मामला है, उसकी वजह से चुने हुए प्रतिनिधि को काम करने से नहीं रोका जा सकता। क्योंकि जिन्होंने उसे चुना है, वे अपने प्रतिनिधि को वापस नहीं बुला सकते। ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं है। यही कारण है कि अपने नेताओं की जोरदार मांग और अमर सिंह के उकसाने के बावजूद मुलायम उन्हें पार्टी से नहीं निकाल रहे।
पार्टी छोड़ने और बदलने के सिलसिले को पहले आयाराम गयाराम कहा जाता था। दल बदलू एक तरह की गाली हुआ करता था। आज नहीं है। चार धाम की यात्रा करने वाले तीर्थयात्रियों की तरह हमारे नेता भी यहां से वहां आते-जाते रहते हैं। उनका उद्देश्य येन-केन प्रकारेण सत्ता में आना और आ गए तो किसी भी तरह वहां बने रहने का प्रयास करना रह गया। नीतियां और कार्यक्रम केवल चुनावी घोषणापत्रों तक ही सीमित रहने लगे। सरकारें भी जनता से मिले जनादेश के आधार पर नहीं, बल्कि चुनावों के बाद दलों और सदस्यों के बीच होने वाली सांठ-गांठ, समझौते, सौदेबाजी, खरीद-फरोख्त, दल-बदल और पर्दे के पीछे सत्ता के लिए साझेदारी के आधार पर बनने-गिरने लगीं।

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