Friday, May 28, 2010

कब सीखेंगे विचारों का सम्मान करना

चंदन राय

भारत में अभी भी बहुसंख्यक लोग हैं जो फतवों की दुनिया में ही जीते हैं। फतवों का आशय मेरे विचार में धर्म की रक्षा करना रहा होगा। इसलिए जब कुछ लोगों को ऐसा महसूस होता है कि धर्म खतरे में है, वे उसकी रक्षा के लिए हथियार लेकर सामने आ जाते हैं। चाहे संघ के कार्यकर्ता हों या फतवा जारी करने वाले मुल्ला-मौलवी। कुछ ऐसा ही हुआ अभी ईरान में जहां तेहरान के धर्मगुरु होजत ओ इस्लाम काजम सेदिगी ने लडक़ियों को लो कट टॉप्स और शार्टस पहनने से मना किया। उनका कहना था कि इसी के कारण प्राकृतिक आपदाएं भूकंप, बाढ, सूखा, अकालआदि आते हैं। इंडाना की स्टूडेंट जेनिफर मैग्राइट ने साहस दिखाते हुए इसका विरोध करने का एक अनोखा तरीका ढूंढ़ निकाला। मात्र 20 साल की जेनिफर ने सोशल नेटवर्किंग साइट पर जाकर इसके खिलाफ एक कैंपेन शुरू किया। उसने लडक़ियों से ऐसे कपडे पहनने की अपील की, जो पुरुषों के लिए कामोत्तेजक हों। देखते ही देखते करीब डेढ लाख महिलाएं इस साइट पर पहुंची और करीब 90 हजार महिलाओं ने बदनदिखाऊ कपडे पहनने का फैसला किया। अब संयोग की बात देखिए कि 26 अप्रैल को जब इन लडक़ियों ने ऐसे कपडे पहने, उसी दिन ताईवान में भूकंप आ गया। धर्मगुरुओं ने फिर कमान संभाली-देखिए, मैं न कहता था कि ऐसे कपडे पहनना अल्लाह को मंजूर नहीं। ईरान सरकार चेती और उसने इस्लामिक ड्रेसकोड की अनदेखी करने वालों पर कानूनी कार्रवाई करने की चेतावनी दी। ये दोनों सच्ची घटनाएं चुटकुले जैसी लगती हैं, लेकिन हमारे समाज की यही खूबी है कि यहां हर मिजाज के चुटकुले चलते हैं। एक लोकतांत्रिक देश में तो इस बात की उम्मीद की ही जा सकती है कि हम दूसरों के विचारों की इज्जत करें, चाहे हम उनसे सहमत हों या नहीं। यही कारण है कि भारत में ब्रह्मचर्य की वकालत करने वाले साधु-संत भी सिर माथे लिए गए और वात्सयायन भी पूजे गए जिन्होंने एक-दो नहीं, बल्कि दुनिया को कामशास्त्र की चौसठ कलाएं सीखाईं। मतलब सिर्फ इतना है कि अगर आप अपनी बात बलात् नहीं थोप रहे हैं तो हर तरह की राय का स्वागत होना चाहिए। आपको जो रास्ता अच्छा लगे, जरुर चलें लेकिन एक रास्ते पर चलें और दूसरे पर थूकें, उचित नहीं।
इन तमाम घटनाओं के जिक्र करने की जरुरत इसलिए पडी क्योंकि अपने देश में भी दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णुता खत्म होती जा रही है। दक्षिण की अभिनेत्री खुशबू के प्रकरण को ही लें। विवाह पूर्व यौन-संबंधों को सही ठहराने के कारण उन्हें समाज के बहुसंख्यक हिस्से का कोपभाजन बनना पडा। हो सकता है कि उनका मकसद मीडिया की सुर्खियां बटोरना रहा हो या फिर कांग्रेस का टिकट लेकर सत्ता के गलियारे तक पहुंचना। हमारा मकसद इस बात को जांचना-परखना है कि समाज ने उनके निजी विचारों को किस तरीके से लिया। देखते-देखते उनके खिलाफ ऐसा विषाक्त माहौल बना कि देशभर में 22 मुकदमे दायर कर दिए गए। देश में जगह-जगह धर्म के ठेकेदारों ने विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिया। एक बार फिर ऐसा लगा कि हमारे विचारों की सहिष्णुता खतरे में है। कुछ ऐसी ही स्थितियों का सामना तसलीमा नसरीन को अपने वतन बांग्ला देश में करना पडा था। जब विवादास्पद लेखों के कारण जगह-जगह फतवे जारी होने लगे और अपनी रक्षा के लिए उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पडी। मशहूर पेंटर मकबूल फिदा हुसैन से लेकर तसलीमा नसरीन एवं सलमान रश्दी जैसे शख्सियतों को भी समाज के इस तबके का कोपभाजन बनना पडा है। आखिर क्यों हम सोचते हैं कि दुनिया हमारे विचारों के अनुसार ही चले? आखिर क्यों हमें ऐसा लगता है कि दूसरों के विचार हमारे अस्तित्व के लिए खतरे की तरह हैं?
तसलीमा नसरीन 'मैं स्वेच्छाचारी' लेख में कहती हैं, ''जब मैं किशोरी थी,कदम-कदम पर निषेधाज्ञा जारी थी। घर से बाहर मत जाना। खेलना-कूदना नहीं। सिनेमा-थियेटर मत जाना। किसी लडक़े-छोकरे की तरफ आंख उठाकर मत देखना। किसी से प्रेम मत करना-लेकिन मैंने सब किया। मैंने किया, क्योंकि मेरा करने का मन हुआ। कोई भी काम करते हुए लोगों ने क्या कहा-क्या नहीं कहा, मैंने यह कभी नहीं देखा। मैंने यह देखा कि मैंने खुद को क्या तर्क दिए। अपनी चाह या इच्छा के सामने मैं पूरी ईमानदारी से खडी होती हूं। अपना भयभीत, पराजित, नतमस्तक, हाथ जोडे हुए यह रूप मेरी ही नजर को बर्दाश्त नहीं होगा, मैं जानती हूं।...मेरा जो मन करता है, मैं वही करती हूं। हां, किसी का ध्वंस करके कुछ नहीं करती।'' यहीं से दूसरों की स्वतंत्रता शुरू होती है, जहां हम किसी के विचारों को ध्वंस करने की इच्छा नहीं रखते। तसलीमा नसरीन के क्रांतिकारी लेखों से कुछ मौलवियों को ऐसा लगा कि इससे तो इस्लाम ही खतरे में आ जाएगा। बुर्के में रहने वाले समाज को इतनी आजादी देनी उचित नहीं। जहां खतरा धर्म पर मंडराने का दिखलाया जाए, तो फिर लोगों को बरगलाना आसान हो जाता है। वेलेंटाइन डे के दिन ही शिवसैनिक से लेकर बजरंग दल और न जाने कौन-कौन से लोग हाथों में तलवार लेकर धर्मरक्षार्थ बिल से निकल आते हैं। यहां मतलब पाश्चात्य शैली के विरोध करने से ज्यादा, उन लडक़ियों को सबक सीखाना होता है, जो घर की चहारदीवारी लांघ कर मुहब्बत का इजहार करने का दुस्साहस करती हैं। और यह सब होता है भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर। ऐसे लोग हमारी सहिष्णुता एवं समरसता की संस्कृति को भूल जाते हैं, जो दुश्मनों की संस्कृति को भी आत्मसात करने का माद्दा रखती है। अगर हमारी संस्कृति इतनी ही कमजोर होती, तो विदेशी हमलावरों के आगे कब की हथियार डाल चुकी होती, जो एक हाथ में तलवार, तो दूसरे हाथ में ध्वजदंड लेकर ही मैदान में आते थे। लेकिन इसी बहाने इन पाखंडियों को यह अधिकार मिल जाता है कि दो प्रेमी युगलों को सरेआम सडक़ पर घसीटें, मारें, जो चाहे करें। चाहे विरोध करने वाले वही शख्स रात के अंधेरे में किसी महिला का शील-हरण करने के लिए उद्दत क्यों न हों।
एक बार फिर बात करते हैं फिल्म अभिनेत्री खुशबू की। देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था ने कहा कि लिव इन रिलेशन और विवाह पूर्व संबंधों पर ये उनके निजी विचार हैं। अगर दो लोग राजी-खुशी बिना शादी के साथ रहते हैं, तो इसमें कौन से कानून का उल्लंघन होता है? इस मामले में किसी को ये अधिकार नहीं है कि दूसरों के निजी विचारों को लेकर हंगामा खडा करें। इस फैसले के बाद अभिनेत्री खुशबू का कहना है कि मैं अपने विचारों को लेकर शर्मिंदा नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने भी मेरे विचारों को और मजबूती दी है। खुशबू ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि पुरुषों को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि उनकी औरत वर्जिन हो और लडक़ियों को भी शादी पूर्व संबंधों में सुरक्षात्मक उपाय अपनाने चाहिए। यह बयान आने के बाद लोगों ने आरोप लगाया कि इससे तमिल महिलाओं की अस्मिता को ठेस पहुंची है। हालांकि उन्हाेंने अपने इंटरव्यू में कहीं भी तमिल लडक़ियों के चरित्र पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की थी। संविधान ने हमें इस बात की स्वतंत्रता दी है कि सार्वजनिक मसलों पर हम अपने निजी विचार व्यक्त कर सकते हैं, जब तक कि इसका असर देश की आंतरिक सुरक्षा या दूसरे देशों के संबंधों पर न पडता हो। हां, निजी विचार व्यक्त करने का मतलब दूसरों के साथ गाली-गलौज करना नहीं हो सकता। हमें अपनी स्वतंत्रता के साथ दूसरों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी सम्मान करना चाहिए।
अभी कुछ ही दिन हुए जब फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने अपने देश में बुर्के पर प्रतिबंध लगाए जाने का ऐलान करते हुए अपने देश की संसद में कहा था की हम अपने देश में ऐसी महिलाओं को नहीं देख सकते जो पर्दे में कैद हों, सभी सामाजिक गतिविधियों से कटी हों और पहचान से वंचित हों। यह महिलाओं की गरिमा के हमारे विचार से मेल नहीं खाता। साथ में उन्होंने यह भी कहा कि हमें हर हाल में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि फ्रांस में इस्लाम धर्म को मानने वाले लोगों का भी उसी प्रकार सम्मान हो जैसा किसी भी दूसरे धर्म के लोगों का होता है। अपने विचार रखने के साथ-साथ दूसरे के विचारों को सम्मान देकर ही सरकोजी कटटरपंथियों के निशाने से बचे रहे। हमें भी अपने विचारों में इसी तरह के संतुलन रखने की जरुरत है, ताकि दूसरे वर्ग की भावनाएं आहत न हों और हमारी कहने की स्वंतत्रता भी बची रह सके।

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