Friday, May 28, 2010

इस मर्ज का कोई इलाज है?

चन्दन राय
जब इनसे जुडा कोई मामला मेडिकल काउंसिल के पास आता, तो उसकी जांच भी अध्यक्ष होने के नाते केतन देसाई ही करते। यानी वही जज बने बैठे हैं, जो कल गुनाहे शरीक थे। किसी ऐरे-गैरे मेडिकल संस्थान से मोटा माल लेकर सरकारी मान्यता दिलाना, फिर उनकी क्वालिटी चेक करने के लिए अपने इंस्पैक्टरों को रखना और अगर मामला गडबडाए भी तो खुद इनके मामलों की जांच करना-यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी। अब धनपशुओं के इस लोकतंत्र में पैसा बनाना तो कोई गुनाह नहीं। अगर ऐसा हो तो देश के सभी खद्दरधारी जेल की दीवारों के पीछे होते। जो राजनीति में आते तो खाली हाथ हैं, लेकिन दो-चार साल में ही रुपयों के बिस्तर पर चैन की नींद सोते हैं। फिर ऐसे सपने देखने का हक किसी डॉक्टर को क्यों नहीं? ये तो बढिया हुआ कि समय से नेताओं ने खद्दर से पीछा छुडा लिया, वरना मुफ्त में ही गांधी बदनाम होते?
क हावत है कि जब बाड़ ही खक्वेत को निगल जाए, तो भला खेत क्या करे? डॉक्टर केतन देसाई ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि सीबीआई के हाथ उसके गिरेबां तक पहुंचेंगे। राजनेताओं और डॉक्टरों के बेमेल गठजोड क़े कारण कुछ लोग अपने को कानून से ऊपर समझने लगे हैैं। जब नेताओं का इलाज करने भर से पदमश्री, पदमभूषण जैसे अवार्ड बांटे जा रहे हों, तो फिर आम जनता भला कब तक चुप रहे। ऐसे अविश्वास के माहौल में एक डॉक्टर के घर से डेढ टन सोना बरामद होना इस रिश्ते को दागदार करता है। जब सैंया भईल कोतवाल, तब डर काहे का। लेकिन जब सत्ता के साथ समीकरण गडबडाते हैं, तो जेल की काली स्याह दीवारें ही इनकी अंतिम शरणस्थली होती है। अब ये बात तो केतन देसाई जानें कि उनसे कहां चूक हुई और क्यों हवालात के चक्कर लगाने पडे। जेल में वे सोच रहे होंगे, मामला टेबल के नीचे का होता, तो इसका कई गुना देकर मामला रफा-दफा कर लिया होता। लेकिन अब करें क्या, जब सत्ता के रहनुमाओं ने ऐन-वक्त पर नजरें फेर ली हों। वरना सीबीआई यों ही किसी के घर नहीं जाती। खैर सत्ता का खेल तो केतन देसाई बखूबी समझ रहे होंगे कि इनके साथ गोटी फिट रखने में उनसे चूक कहां हुई। लेकिन उनका गुनाह भी तो ऐसा था, जो सफेदपोश मुजरिमों को भी शर्मिंदा करे। कम से कम वे जुर्म की दुनिया में भी अपने पेशे के प्रति इमानदार होते हैं। लेकिन उन्होंने तो इस पेशे की ईमानदारी को भी कलंकित किया था। गुनाहों की फेहरिश्त पर नजर डालें तो, इनका पहला गुनाह था प्राइवेट मेडिकल संस्थानों से मोटी रकम लेकर सरकारी मान्यता देना। भई, इन्हे किसी न किसी संस्थान को मान्यता तो देनी ही थी। ऐसे में उन संस्थानों को जो पैसे के अभाव में दम तोड रहे हों और घोर चिकित्सकीय लापरवाही के बावजूद इलाज करने का माद्दा रखते हों, को ही क्यों न मान्यता दी जाए? हालांकि इसके एवज में एक मोटी रकम, जो कुछेक करोड रुपए होती थी, का सौदा भी कर आते थे। कुकुरमुत्तों की तरह सरकारी मान्यता प्राप्त मेडिकल कॉलेज गली-कूचों में खुलते जा रहे थे, लेकिन सवाल तो डॉक्टरों की विश्वसनीयता पर था। क्या ऐसे चिकित्सक पेट में कैंची या तौलिया छोडने से बेहतर इलाज कर पाते। जिसके लिए मरीजों के फटे पेट को दुबारा खोलना पडा था। क्या मरीजों का कोई हक नहीं बनता कि ऐसे चिकित्सकों की डिग्री पर भी सवाल खडे क़र सकें? वहां भी कोई न कोई केतन देसाई छुपा होगा, जो पैसे लेकर मुफ्त में मुन्ना भाईयों को एमबीबीएस बनाता होगा। दूसरा आरोप जो उनपर लगा है, तीन अतिरिक्त इंस्पेक्टरों की नियुक्ति का, जो किसी मेडिकल कॉलेज के गुणवत्ता की जांच करते थे। यह बात तो सडक़छाप चंपुओं को भी पता है कि जब कोई गिरोह बनाया जाता है, तो पहले अपने लोगों को विश्वास में लिया जाता है। आखिर वही तो आडे वक्त में काम आते हैं। अगर यह अपने गृहप्रदेश के हों, तो फिर कहना ही क्या? कुछ ऐसी ही सोच के साथ केतन देसाई रैकेट काम कर रहा था। जब इनसे जुडा कोई मामला मेडिकल काउंसिल के पास आता, तो उसकी जांच भी अध्यक्ष होने के नाते केतन देसाई ही करते। यानी वही जज बने बैठे हैं, जो कल गुनाहे शरीक थे। किसी ऐरे-गैरे मेडिकल संस्थान से मोटा माल लेकर सरकारी मान्यता दिलाना, फिर उनकी क्वालिटी चेक करने के लिए अपने इंस्पैक्टरों को रखना और अगर मामला गडबडाए भी तो खुद इनके मामलों की जांच करना-यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी।
तीसरा इल्जाम भी बेहद बचकानी ही कही जा सकती है। अब धनपशुओं के इस लोकतंत्र में पैसा बनाना तो कोई गुनाह नहीं। अगर ऐसा हो तो देश के सभी खद्दरधारी जेल की दीवारों के पीछे होते। जो राजनीति में आते तो खाली हाथ हैं, लेकिन दो-चार साल में ही रुपयोें के बिस्तर पर चैन की नींद सोते हैं। फिर ऐसे सपने देखने का हक किसी डॉक्टर को क्यों नहीं? आखिर ये भी तो नेताओं की तरह सफेद लिबास में रहना यानी सफेदपोश होते हैं। ये तो बढिया हुआ कि समय से नेताओं ने खद्दर से पीछा छुडा लिया, वरना मुफ्त में ही गांधी बदनाम होते? लेकिन चिकित्सकों ने इस बात की परहेज भी नहीं की। सीट बढवाने से लेकर मान्यता दिलाने तक सब कुछ खुला खेल पेशे की आड में चलाते रहे। जानकारी मिली है कि स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद को इस बात की जानकारी थी कि कुछ ऐसे दलाल हैं, जो इस धंधे मेें लिप्त हैं। फिर उन्होंने कार्रवाई करना क्यों नहीं उचित समझा? क्या सिर्फ पत्र द्वारा सरकारी मान्यता प्राप्त संस्थानों को सूचित करना ही जरुरी था? आखिर इस काले धंधे में कौन ऐसे लोग थे, जिन्होंने स्वास्थ्य मंत्री को कार्रवाई करने से रोक रखा था। इस मामले की गंभीरता से जांच की जाए तो हो सकता है कुछ ऐसे नकाबपोश सामने आएं, जिनसे यूपीए सरकार एक बार फिर मुसीबत में घिरी दिखे। एक और इल्जाम है केतन देसाई पर। एक साल में 300 मेडिकल संस्थानों को मान्यता देने का। आरोप है कि उन्होंने परचून के दूकान की तरह मेडिकल संस्थानों को सरकारी मान्यताओं की रेवडी बांटी। यहां क्वालिटी पर जोर नहीं था, पैसे की क्वांटिटी ज्यादा जरुरी थी। यों भी सरकार डॉक्टरों की संख्या के नाम पर जनता को बरगलाती रही है। अभी स्वास्थ्य मंत्रालय ने जानकारी दी है कि देश भर में करीब 7.63 लाख डॉक्टर हैं, लेकिन इसमें दिवंगत हो चुके एवं अप्रवासी डॉक्टरों का नाम भी शामिल है। एक हजार की जनसंख्या पर अपने देश में अगर एक डॉक्टर भी हो तो आने वाले समय में ही करीब 6 लाख डॉक्टरों की जरुरत होगी। इस कमी को अधिक से अधिक मेडिकल संस्थानों को मान्यता देकर ही तो पूरा किया जा सकता है। यों भी मेडिकल, इंजीनियरिंग कॉलेज खोलना इस देश में सबसे मुनाफे का सौदा है। सरकार से सस्ते रेट पर जमीन लो, बिल्डिंग खडी क़र लो और किसी केतन देसाई को चढावा देकर मान्यता ले लो। फिर तो मजे से दूकान चलनी है। अपने बेटे को डॉक्टर, इंजीनियर बनाने का ख्वाब देखने वाला एक वर्ग अभी भी कैपिटेशन फीस के नाम पर लाखों रुपए देने को तैयार हैं। फिर 300 ही क्यों, ये संख्या कम से कम हजार तक तो जानी ही थी। लगता है, स्वास्थ्य मंत्री के इरादों की भनक केतन देसाई को हो चुकी थी। हालांकि इसके पहले भी 2001 में उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप के कारण एमसीआई के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पडा था।
ज्ञान सिंह मेडिकल कॉलेज के उपाध्यक्ष बलविंदर सिंह पर जब सीबीआई ने शिकंजा कसा, तब यह पूरा खेल सामने आया। जांच में उन्होंने 2 करोड रुपए केतन देसाई के विशेष सहयोगी जेपी सिंह को देने का भी सच उगल दिया था। हरियाणा, पंजाब, उत्तरप्रदेश और एनसीआर क्षेत्र में कई ऐसे कॉलेजों को केतन देसाई ने अपने एहसान से उपकृत किया था। इसमें कुछ विदेशी संस्थानों के नाम भी सामने आए हैं, जो एमसीआई के साथ मिलकर फर्जी डिग्रियां बांट रहे थे। अब देश के कई ऐसे संस्थान सीबीआई के रडार पर हैं।
डॉक्टरों को कई बार अपने फैसले दिल की जगह दिमाग से लेने होते हैं। इसीलिए कई बार रोगी दर्द से कराहता होता है और उसके दुख से बेपरवाह चिकित्सक अपनी मस्ती में होता है। रोगी की मौत होने पर उसका शरीर परिजनों को तब तक नहीं सौंपा जाता, जब तक उन्होंने इलाज का पूरा पैसा चुका नहीं दिया हो। ऐसे डॉक्टर तो समाज के लिए तब हैवान बन जाते हैं, जब शरीर के अंग-व्यापार में इनका नाम सामने आता है। कई बार गुर्दों के अवैध कारोबार में बडे-बडे ड़ॉक्टरों का नाम समाज को कलंकित करता रहा है। लिंग-परीक्षण नहीं करने की लाख कसमें खाने के बाद भी ये भ्रूण-हत्या में लिप्त होते हैं। ऐसे में समाज के इस तबके से ये उम्मीद तो की ही जाती है कि समाज में अपने उन वादों को निभाएं, जो उन्होंने इस पेशे में आने के समय लिया था।

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