Thursday, January 14, 2010

लात-मत मारो, रोजी-रोटी है

डीटीसी अपने पहले की तरह रफतार से चली जा रही थी। सबकुछ सामान्य ही था। पहले की तरह खचाखच लोगों से भरी भीड़, पैर टिकाने को भी जगह नहीं। तभी लगभग कान के पास आकर किसी ने चिल्लाया-लात-मत मारो, रोजी-रोटी है। यही दसेक साल का कोई लड़का रहा होगा। पैबंद लगी चिकट शर्ट पहने वह लड़का मेरी ओर ही घूर रहा था। उसे हमारे सभ्य दिल्ली के भाई लोग बिहारी नाम से ही संबोधित करेंगे। उनकी नजर में हर गरीब टाइप लोग तो बिहारी ही होता है न। मैं सकपका कर दूर हुआ, तो नजर पड़ी कि उसका बैग मेरे पैर के पास रखा था। क्षमा याचना करते हुए मैंने पैर तो हटा लिया, लेकिन फिर चोरी-छुपे बारीकी से उस लड़के पर नजर रखने लगा। दरअसल ब्लॉगर का कीड़ा जो भीतर कुलबुलाने लगा था। मेरे लिए वो हाड़-मांस का लड़का कहानी के प्लॉट में कब बदल गया, पता भी नहीं चला। इस बात के लिए मैं लोगों से माफी चाहता हूं। मेरी नजर में ये अक्षम्य अपराध है, यह जानने के बाद भी मैंने ऐसा किया। बनियों की नजर में हर व्यक्ति ग्राहक होता है, मैनेजर की नजर एक सेल्समैन की तलाश में होती है, तो इनसे हटकर मैं भी नहीं सोच रहा था। अंधे बाजार युग में हर आदमी एक प्रोडक्ट में बदल गया है। कुछ इसी से आदमी की उपयोगिता तय होती है। या यों कहें कि बाजार में उसकी काबिलियत के हिसाब से उसकी बोली लगाई जाती है। हालांकि इस मुददे पर जाना फिलहाल मेरा मकसद नहीं।
सोचने का जो अंतहीन सिलसिला शुरू हुआ, तो फिर दूर तक निकलता चला गया। क्या कॉमनवेल्थ की मार ये गरीब झेल पाएंगे। फ्रांस या शिकागो अगर राजधानी बनायी जाती है, तो भला इनका क्या होगा। इन सभ्य शहरों में रहने वाले लोग भी तो वैसे ही होंगे। मॉल कल्चर को बढ़ावा देकर छोटे दूकानदारों को राजधानी से भगाया गया। कुछ बचे भी रहे तो लालडोरा के भूत ने शहर छोड़कर भागने को मजबूर किया। कुछ साल बाद तो ये स्थिति होगी कि नमक से लेकर सूई तक लेने के लिए हमें मॉल के चक्कर लगाने होंगे। कॉलोनी के नुक्कड़ में एक चमचमाता हुआ मॉल हमारे पास हर वो सामान उपलब्ध कराएगा, जो पहले छोटे दुकानदार रखते थे। हमारी गली का बनिया या रामू हलवाई बीते जमाने की बात हो जाएगी। कुछ ऐसा ही कहर रिलांयस फ्रेश के रिटेल आउटलेट ने भी ढ़ाया। तमाम सब्जी बेचने वालों को देश के सबसे बड़े अरबपति की नजर लग गई़ । अरबपति बनिये को वहां भी मुनाफा जो नजर आने लगा था। अब गरीब- गुरबा विरोध करे भी तो कैसे। जब सरकार ही इन अरबपतियों से गलबहियां डाल ता-ता थैया करने में लगी हो, तो इन करूणेां की पुकार भला कौन सुने। इतना भी होता तो गनीमत थी। आम जनता के टैक्स के पैसों से ही तो राजधानी में चमचमाते सर्पिलाकार फलाईओवर बनाए गए हैं। लेकिन क्या इनका इस्तेमाल भी ये गरीब माणुस कर पाएंगे। या यहां भी लंबी तेज रफतार वाली विदेशी गाड़ियों का बेड़ा ही गुजरेगा। लेकिन इसकी कीमत भी कांग्रेस के आम आदमी को चुकानी होगी। कम रफतार वाली गाड़ियों को तो वहां चलने भी नहीं दिया जाएगा। रिक्शे वाले तो यों भी राजधानी की तंग सड़कों से भगाए जा रहे हैं। भिखारियों पर तो सरकार के लठैत पुलिसवालों की नजर पहले से ही तिरछी होती रही है। आखिर शीला दीक्षित सरकार को भी तो मुंह दिखाना है। गरीब-गुरबों को देखकर विदेशी नाक-भौं सिकोड़ेंगे,तो भला सरकार की क्या इज्जत रह जाएगी। तो बलिदान तो इन्हें होना ही है।
अगर सरकार का बस चले तो गेम के दौरान विदेशियों के गुजरने वाले सड़कों पर बसे गंदी बस्तियों को सरकार तिरपाल से ढंकवा दे। अब किसी गरीब के धंधे को अनजाने में पैर लग गया हो, तो विरोध नजर आता है। अब इस संगठित तं़त्र के खिलाफ कैसे आवाज उठाई जाए,यह बात उनकी समझ से परे है। राह दिखाने वाले कुछ समाज सेवियों की जमात भी केवल जंतर-मंतर तक विरोध करने तक ही सीमित होती है,जिसकी सरकार कोई सुध नहीं लेती। ऐसा होता तो लोग कई सालों से न्याय होने के इंतजार में वहां नहीं बैठे होते। जनता के धीरज की तो दाद देनी होगी, जो सब कुछ खो जाने या छीन लिए जाने के बाद भी सरकार से ये उम्मीद लगाकर बैठे हैं कि शायद अब न्याय हो।

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