तो सबकुछ पर्दे के पीछे चल रहा था। बॉस को भी इसकी भनक लग चुकी थी। एक दिन कुछ हुआ यूं कि बॉस के एक चहेते को आकाशवाणी हुई भई, अब तुम भी पैसे बढ़ाने की जुगत करो। खर्च तो इतने में चलने से रहा। हालांकि सैलेरी किसी संस्थान से ज्यादा ही पाते रहे। तो हुआ यूं कि अब वे अपनी सभी घरेलू समस्याओं का जिक्र अकेले में बॉस से करने से नहीं चूकते। मौका मिलते ही दिल का दर्द लेकर ब्ौठ जाते। बॉस को भी एहसास हो चला था कि अकेले लूटने-खाने में एक दो लोगों को शामिल करना अब जरूरी हो गया है। होता ये है कि कोई विदेशी फर्म जब किसी प्र्रोजेक्ट के लिए एनजीओ को रकम देती है तो सालाना उसका हिसाब भी देना होता है। तो जितनी मोटी रकम आप एकाउन्टेन्ट के साथ मिलकर उड़ा सकते हो उड़ा लो। बाकि की रकम वापस करनी होती है। इसी पैसे पर सबों की नजरें गड़ी थी जिसे लोग सैलरी के नाम पर लूटना चाह रहे थे। ते यही खुल्ला खेल फरूZखाबादी चल रहा होता है। बॉस को रकम तो अपने जेब से देनी थी नहीं। सो चमचों को खुश करने के लिए उसे यह मौका अच्छा लगां। आपातकाल मीटिंग बुलाई गई। कुछ विरोध करने वालों को इस मीटिंग से अजीब से तर्क देकर बाहर रखा गया। अब बात इसपर आकर रूकी कि किसकी कितनी सैलरी बढ़े । तो जिसको जितनी जरूरत हो उतनी मिले- पर आकर बात समाप्त हुई। बढ़िया साम्यवाद के नारे का इस्तेमाल था- बॉस को अपनी मनमर्जी करने देने के लिए। तो हुआ ये कि ऑफिसब्वाय को भी इस मीटिंग से बाहर ही रखा गया क्योंकि इसके आधार पर सबसे अधिक हकदार तो वही बनता था। जिसे सरकार की रोजगार गारंटी से भी कम पैसा दिया जा रहा था और काम के नाम पर हाड़-तोड़ मेहनत़। पिता की मौत के बाद परिवार की सारी जिम्मेदारियां भी अपने कमजोर कंधों पर ढ़ो रहा था। पर कहते हैं ना कि बॉस इज आलवेज राइट। तो सभी चमचे गर्दभ राग में बॉस के सुर में सुर मिलाकर ढेंचू-ढेंचू करने लगे। एक-आध विरोध के स्वर भी उठे, तो बेरहमी से दबा दिए गए। बॉस अपनी इस विजय पर लंबी सी मुस्कान बिखेरता मीटिंग से बाहर निकल गया। खैर, इसी पर एक कविता पेश करने की गुस्ताखी चाहता हूं-
कहते हैं बड़े-छोटे का भेद उचित नहीं
ठीक ही कहते होंगे
मेरी उनसे कोई शकायत नहीं
लेकिन मन उचाट हो जाता है
जब देखता हूं एक हाड-तोड़ मेहनत करते
युवा की कातर निगाहें
भारी पड़ता है किराया पूरे महीने की सैलरी पर
फिर एक भरा-पूरे परिवार की जिम्मेदारियां भी तो हैं
जो छोड़ गए हैं पिता उसकी विरासत में
लेकिन बॉस के आगे आते ही सिटटी-पिटटी गुम
आखिर क्या करे वह
न जाने कई हैं कतार में
कि कब वो धम्म से गिरे और दूसरे चढ़ बैठें
एकांत में सोचता है-
थ्कतने खुदगर्ज हैं लोग
ल्ेकिन देखता हूं ऑफिस के एक कोने में
च्ुपचाप बैठे उस लड़के को
आप पूछ सकते हैं उसके नाम के बारे में
भई नाम में क्या रखा है
यों भी नाम तो नसीब वालों के होते हैं
चाय की दूकान में काम करने वाले हों या फिर
जूते सीने वाले या झाडू पोंछा करने वाले
सबों का एक ही नाम होता है छोटू
कभी खुश होता तो मुझसे आकर कहता
भैया अब मैं पढ़े-लिखों वाला काम करूंगा
ऐसे क्षण में मैं उसे गौर से देखता
और अपनी बदहाली पर भी तरस खाता
सीढ़ियां फलांगते तालीम के शीशZ पर तो आ पहुंचा था
लेकिन सोचता था अब क्या
अब तो पीछे लौटना भी संभव नहीं
अभी कुछ दिनों पहले की ही तो बात है
गया था पिता की बरसी पर छुटटी लेकर
मां के आंसू ने रोक लिए थे दो-चार दिन
लौटते हुए डर से कंपकंपी छूट रही थी
बॉस के अदृश्य निकले हुए नाखूनों की धार
वह महसूस कर रहा था अपने गर्दन पर
और एक ऐसे ही जाड़े के ठिठुरते दिनों में
जब हाथ उठाकर बढ़ायी जा रही थी लोगों की सैलरी
दफतर के एक कोने में सिसक रहा था लिंगप्पा
आज जब हमारे बीच नहीं है वो
याद आती है उसका मासूम सवाल
भैया अब मैं पढ़े-लिखों वाला काम करूंगा।
अगले अंक में
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bahut badhiya
ReplyDeletehamari yahi problem hai. hum sattire or article likkhar apne naam ke sath post kar sakte hai par uska naam nahi show kar sakte. hona to yeh chahiye ki hum apna naam hidden rakhe ayr inko khulkar expose kare. tazzub is baat ka hai ki is tarah ke corrupt log is baat ko jante hai ki unka naam professional reason ke karan nahi chapega. agar hum har incident par apne naam hide rakhe aur guilty logo ko expose karen to log blogging ko seriously lenge aur effectiv bhi rahengi.
ReplyDeletebilkul sahi aur sateek baat
ReplyDeleteaj jitna nukasn desh ka terrorists aur extrimist leaders nahi kar rahe usase kahin jyada NGOs kar rahe hain, ve NGOs jo shuru to hote hain kisi aur dikhave se lekin jaldi hi apne asli maksad pe aa jate hain
chandan ko shandaar bhasha aur shaili me ek gambhir mudda uthane ke liye badhai
Vimal chandra Pandey
achha likha hai bhai.........bijay
ReplyDeletebahut badhiya.lage raho
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