Tuesday, January 12, 2010

धुंध में नया साल

बहुत देर से कम्प्यूटर के की-बोर्ड से उलझता रहा। कुछ ऐसा था जो गले में फंसा था, निकलना चाह रहा था लेकिन लंबे समय तक इसी उहापोह में उलझा रहा। इसी समय नया साल भी दरवाजे पर बार-बार दस्तक दे रहा था। कोई साल नया कैसे होता है,समझ नहीं पा रहा हूं। क्या कोई नया सूरज उगता है,आसमान नया होता है, प्राकृतिक छटाएं कुछ अलग रंग बिखेरती हैं। कुछ भी तो नया नहीें होता। बस एक सोच,एक विचार कि नया साल है और उसका स्वागत करना है। कभी-कभी तो इसका एहसास भी तब होता है जब यार-दोस्तों के हैपी न्यू ईयर मैसेज आने शुरू होते हैं। नई सोच,नई उमंगें होती तो इसे हरेक सुबह महसूस किया जाना चाहिए था। सिर्फ नए साल की पहली तारीख को ही क्यों। क्या गरीबों के आगे से थालियां नहीं छीनने का वादा ये समाज के ब्लडसकर जोंक करेंगे। क्या नए साल में फिर किसी की नौकरी तो नहीें छीनेगी,क्या इसकी कोई गारंटी है। क्या भूख के कारण मासूमों की बिखरी लटें फिर से संवारे जाने का वादा सरकार करेगी। क्या दलितोंं पर होने वाले अत्याचारों में कोई कमी होगी। क्या आदिवासियों को उनके जंगल,जमीन से विस्थापित नहीं करने का वादा सरकार के नुमांइदे करेंगे। क्या हमने अपनी आवश्यकताओं को सीमित करने का कोई प्रण लिया है। गरीबों के बीच काम करने वालों ने क्या उनकी तरह ही रहने-खाने का फैसला लिया है। या केवल मीडिया में चेहरा चमकाने एवं गरीब बच्चों के साथ फोटो खींचा लेने तक ही उनकी जिम्मेदारियां हैं। अगर नहीं ,तो ऐसा नया साल आपको ही मुबारक हो। मेरे राम तो अपनी झोपडी में ही मगन हैं।
एक बाद और बार-बार भीतर तक मन को कुरेदती है। अमेरिका को गाली देना लगभग हमारी आदत में ‘शुमार हो चुका है। लेकिन भारत के पूंजीपतियों का चाल-चरि तो उनसे भी गंदा होता है। इस मामले में तो हम समृद्धि के उच्च शिखर पर बैठे अमेरिका को भी पीछे छोड चुके हैं। वहां के रईसों को भी भारत के रईसों की लाइफस्टाइल को देखकर रश्क हो सकता है। जब पूरी दुनिया आर्थिक मंदी से कराह रही थी,तब भारत में एक वर्ग 200 करोड रूपए की याट से अपनी बीबी को लुभा रहा था। गुटखा किंग न जाने कितने करोड की विदेशी गाडी अपने रिश्तेदारों को बर्थडे प्रेजेन्ट करने में मशगुल थे। कम से कम इस मामले में हम अमेरिका के रईसों को आगे मानते हैं। वो दूसरों को लूटते तो हैं,लेकिन उस पैसे का समाज के आगे नंगा प्रदशZन नहीं करते। कुछ समाज सेवा के नाम पर फांउडेशन बनाकर ही लगा देते हैं,या गरीब देशों को मदद के नाम पर अपना हित साधते हैं। हालांकि इसके पीछे भी उनकी दूरगामी नीति काम कर रही होती है,लेकिन इसी बहाने चलो कुछ तो पाप धुला। भारत के मामले में लूटनीति मंथन करी का विचार ही फलता-फूलता है। फिर जब समाज का उपेक्षित वर्ग इन तमाशों से उबकर विरोध करता है, तो सरकार की नजर में नक्सली या कोई देशद्रोही नजर आता है। सरकार को उनकी भूख से कुलबुलाती आंतें नहीं दिखती,जहां अगर वो विरोध नहीं करता तो शायद परिवार में सामूहिक आत्महत्या के अलावा कोई चारा नहीं था।एक बात और सोचता हूं कि भारत की तस्वीर ही कुछ और होती अगर भारत का हरेक अमीर एक गांव गोद लेने का प्रण करता। अगर भारत का हरेक शिक्षित नागरिक एक को शिक्षित करने का प्रण लेता। अगर ऐसा संभव है,तभी नए साल की खुशियों में शरीक होने का हमें हक है।

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