Monday, January 11, 2010
लूखा एनजीओ यानी लूटो खाओ एनजीओ
बॉस ने पीछे की सीट पर बैठे अपने चेले की ओर इशारा किया( इशारा भी कुछ यूं था जैसे चुटकी से सुर्ती मली हो। अक्सर ऐसा लोग पैसे के बारे में पूछने के लिए करते हैं। चेला भी पक्का शागिर्द था। उसने सहमति में सिर को हल्का सा यूुुं झटका दिया, जैसे सब समझ गया हो। कहा-हांं जितना कहा था,मिल गया है। गाडी अपने रफतार में सड़क पर इठलाती चली जा रही थी। खिड़की से बाहर का मनोरम नजारा लुभा रहा था । इस बातचीत में हालांकि मैं कहीं शरीक न था, लेकिन ध्यान इस मौन बातचीत की तरफ चला ही गया। खैर बताता चलूं कि बॉस राजधानी में एक एनजीओ चला रहा था और लोगों के बीच उसने अपनी प्रतिभा का लोहा जरूर मनवा लिया था। ऐसा लग रहा था मानो डाइवर को इन बातों से कोई मतलब ही नहीं। लेकिन वो भी था पूरा घाघ। बेफिक्र की तरह दिखना तो उसका एक छदम आवरण भर था। अब बिना भूमिका के बात पर आना ही ज्यादा उचित होगा। तो इस एनजीओ के कर्ताधर्ता हैं हमारे आज के नायक, जो कभी मीडिया में नुमाया हुआ करते थे। किसी ने सलाह दी कि भई कब तक केवल टीवी में चेहरा ही दिखाते रहोगे, या फिर पैसे भी बनाओगे। बात इन महोदय को जंच गई। अगले ही दिन लोगों ने देखा कि उनकी उठ-बैठ एक पक्के समाजसेवक के घर होने लगी। फिर एक स्वामिभक्त लोगों की टीम भी तो खड़ी करनी थी,जिनमें मिशन का जज्बा कूट-कूट कर भरा हो। एनजीओ के लिए विदेशी रकम का इंतजाम भी हो गया था। यों भी दरो-दीवार तो लोगों ने खड़ी की है। पैसे का तो एक ही रंग होता है,अंतर होता है तो बस इतना कि कहीं गांधी की तस्वीर छपी होती है, तो कहीं चर्चिल की। खैर मुददे की बात की जाए,वरना भाई लोग कम्यूनिस्ट ठहरा कर भददी सी गाली निकाल सकते हैेंं। हुआ यूं कि एक दिन ऑफिस एकाउन्टेन्ट को किसी बात पर झगड़ते देखा। बहस का मुददा यूं था कि बॉस ने जो हजामत कराई है, उसका पैसा एकाउन्ट में भला क्यों न जोड़ा जाए। आखिर हजामत का मकसद कहीं गरीबों को उपर उठाना ही तो है। भई टेलीविजन पर उन दुखियारों की बात करनी है, तो कम से कम चेहरा तो गरीब टाइप का न दिखे ना। तो भला हजामत का पैसा भी तो एकाउन्ट में जुड़ना ही चाहिए। खैर एकाउन्टेन्ट की मजबूरी समझ से परे नहीं थी। एक तो मंदी का असर, दूजे गरीबी के कारण पढ़ाई भी बीच में छोड़ने के दुख से वोे लाचार था, ऐसे ही लोगों की तलाश तो बॉस को हमेशा होती है, जो उजबक की तरह बस समय-समय पर गरदन हिलाता रहे और शुतुरमुर्ग की तरह डांट खाने पर गर्दन फशZ में गड़ा ले। तो बॉस के अश्लील इशारे पर बात हो रही थी। गांव में आम सभा होनी थी। गांव के गरीब-गुरबे सुबह से ही इंतजार में थे। महोदय एक लंबी एसी गाड़ी से उतरे। लोगों पर यूं नजरें बिखेरी जैसे कोई एहसान किया हो। मंच पर स्वागत के लिए कुछ लोग दौड़ ही तो पड़े थे। एक लंबे रटे-रटाए भाशण के बाद, जो अक्सर वो सभाओं में दिया करते थे के बाद नारेबाजी शुरू हुई। आयोजक परेशान सा दौड़ा-दौड़ा मेरे पास आया। भई साहब, आप तो साथ में ही आए हो ना। बताओे, कितने पैसे देने हैं। मैं हक्का-बक्का सा उसके मुंह की ओर देखने लगा। भई,मुझे तो मालूम नहीं-बस इतना ही मुंह से निकला होगा। हालांकि इसके लिए मुझे हल्की सी झाड़ भी सुननी पड़ी। आता हुआ पैसा, जो दूर जा रहा था। अंत में बॉस ने अपने विश्वसनीय सिपाहसलार को आगे खड़ा किया, जिसने पूरे काईंयापन के साथ उन मासूमों से वसूली की । तो ये इशारा उस पैसे के बारे में ही किया गया था, जो ड्राइवर को देनी थी और जिसकी रकम एक बार बॉस एकाउन्ट में भी चढ़ा चुके थे। तो हुआ ना दोनों हाथ में लडडू। अपने बॉस तो ऐसे ही थे। लक्ष्मी की भी विशेश कृपा उनपर बनी रही। देखते- देखते राजधानी में दो फलैट के मालिक बन चुके थे। एक में खुद रहते थे और दूसरे को किराए पर उठा रखा था। किसी और को नहीं, अपने को ही। इसके बदले एक मोटी रकम एकाउन्ट में ट्रांसफर हो जाती थी। गोरा-चिटटा चेहरा, मॉडर्न लुक और आदशZवाद का मुलम्मा लगा हो, तो लड़कियां तो फिदा होंगी ही। सो आज कल उनका दिल भी किसी और पर आया था। गाहे-बगाहे वो अपने शौक का इजहार भर करते रहते थे। पर हाय री किस्मत, निगोड़े समाज सेवक का मुखौटा जो लगा चुके थे। खैर दबा-छुपा ये रोमांस ऑफिस की फिजाओं में भी दिखने लगा था। आज-कल वे किसी यंगकमर्स पर फिदा थे। लैपटाप के साथ ऑफिस के कोने-कतरे में नजर आने लगे थे। उनकी चौकस निगाहें हर वक्त उसी का पीछा करती। आजकल बॉस की इन हरकतों से चमचों में हड़कंप मची थी। बॉस की इन हरकतों से उनकी चमचागिरी पर संदेह का साया जो लहराने लगा था। अब हनुमान की तरह दिल चीरकर अपनी भक्ति तो दिखाने से रहे। खैर, कुछ ना कुछ तो करना ही था( सो यहां चमचागिरी का स्तर और तेज हो गया था। अब होड़ किसी लड़के से हो तो,बात समझ में आती है। मामला किसी विपरीतलिंगी का हो,तो भला किया क्या जाए। आपातकाल मीटिंग होने लगी। लोगों में राय-विमशZ कर मामले को अनििश्चतकाल के लिए टालना ही उचित समझा। उड़ते-उड़ते बात मेरे तक पहुंची। एक अपना दुखड़ा यों बयान कर रहा था-क्या करें यार,आज-कल बॉस मुझसे खफा-खफा से रहते हैं। ढ़ंग से बात भी नहीं करते। कुछ ऐसी ही चर्चाएं यहां की फिजाओं में तारी रहती थी। अगले अंक में जारी…ण्
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आजकल यह बातें आम होती जा रही है. कई दफ़ा इन सब बातों के बारे में जानकर बेहद गुस्सा आता है. लेकिन हमारी मजबूरी होती है कि हम उनके ख़िलाफ़ कुछ कर नहीं पाते...दरअसल ये लोग सफेदपो का नकाब ओढ़े तमाम काले कारनामों को अंजाम देते हैं. एनजीओ खोलकर एक तरह से धंधा चलाना शुरू कर देते हैं....
ReplyDeleteयह तो घपलेबाज़ी की छोटी नज़ीर भर है...जितने भी प्रभावी लोग और ईमानदार लोग अच्छाई का चोला पहनते हैं...उनकी असलियत कुछ और ही होती है......इस लेख ने हमारी विश्वासों को मज़बूत ही किया है कि पाखंडी इस युग में हर रुप धारण कर सकते हैं......चाहे वह एनजीओ का कर्ताधर्ता ही क्यो न हो
ReplyDeleteसुबह सुबह लाल बुझक्कड देखा. यह ब्लॉग पहली बार देख रहा हूं. एक पोस्ट देखी लूखा एनजीओ यानी लूटो खाओ एनजीओ.इस पोस्ट से यह पता चला कि एक काला कारनामा का पर्दा फाश होने जा रहा है. जिसको जहां तक सोच और कर सकता है वहां तक करता है. उम्मीद करता हूं कि और भी पर्दा उठाएं ताकि सच समने आ सके. आखिर सच्चाई कभी छुपा नहीं सकता. कभी तो सामने आना ही है. आगे बेसव्री से इंतजार करता हूं.
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