Thursday, June 25, 2009

करवट ले रहा है लोकतंत्र

उलझी हुई दाढ़ियों के बीच झांकती निर्दोष आंखें
पूछती हैं सरकार से अपना अपराध
जल, जंगल, जमीन के लिए लड़ना...अपराध है
जंगलियों के हक की बात करना...अपराध है
भूखों को रोटी के लिए जगाना...अपराध है
गर तुम्हारे शब्दकोश में है ये अपराध
तो ऐसी जेल पर सौ जवानियां कुर्बान
जेल से ही रचे जाते रहे हैं इतिहास

इस बेचैनी पर मंद मंद मुस्कुरा रहा हैं शहंशाह
और नींद में ही बुदबुदा रहा है
तुम भी बन सकते थे सरकारी डॉक्टर
या फिर खोल लेते कोई नर्सिंग होम ही
गर कुछ नहीं तो एनजीओ ही सही
सरकार के रहमोकरम पर चल पड़ती दुकान
क्या जरूरत थी उनके बीच खुद को खपाने की
जंगल से खदेडे जाते हैं लोग....मौन धारण करते
भूख से बिलखते हैं बच्चे...चुप्पी ओढ लेते,
क्या जरूरत थी इनके झंडाबरदार बनने की
लोगों की चुप्पी को आवाज देने की
शहंशाह के आंखों में आंखें डाल सवाल करने की
अब भुगतो अपने किए की सजा

आज अमीरों की गोद में नंगी सो रही है सरकार
बढा रही है उनके साथ सत्ता की पींगें
और इन्हीं दिनों गरीबों पर कसता जा रहा है
सरकारी फंदा
शहंशाह को पता है इनकी हदें
एक पौव्वे पर ही डाल आते हैं कमल, पंजे पर वोट
रोटी के एक टुकडे पर बिक रहा है
लोकतंत्र
इन्हीं दिनों फुटपाथ पर करवट ले रहा है
लोकतंत्र
उनकी चरमराहट से बेखबर सो रही है
सरकार
उसके खर्राटे की आवाज अब लोगों को डराती नहीं
एक विनायक सेन की आवाज हिला देती है सत्ता की चूलें
वो हंस रही है सरकार की बेबसी पर मौन
और कर रही है इंतजार आने वाले कल का
जब शहंशाह की मोटी गर्दन पर कसा जाएगा
लोकतंत्र का फंदा

एक ऐसे दौर में
जब शहंशाह के मौन इशारों पर
लोग बनाए जाते रहेंगें बागी
यों ही कांपती रहेगी सरकार
एक अदने आदमी के भय से

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