याद है आपको निठारी की खूनी हवेली डी-5 का सच। न जाने कई मासूमों की सिसकियां इन हवेलियों की चहारदीवारियों में कैद हैं। खून से सना ड्राइंगरूम चीख-चीखकर इन राक्षसों की हैवानियत को बयान करता है। इस हवेली के पास कोई भी बच्चा आया, तो जिंदा वापस नहीं जा सका। यहां दो जीवित प्रेतात्माओं का वास था, जो इन मासूमों को अपने हवस का शिकार बनाते थे और बेरहमी से कत्ल कर उनके अधपके गोश्त के साथ जश्न मनाते थे। लेकिन ये हैवान अभी भी जिंदा हैं, आपके घर के आसपास, शातिर नजरों से किसी मासूम को घूरते हुए। उन्हें इंतजार होता है किसी मासूम के अकेलेपन का। मौका मिलते ही ये वहशी दरिंदे अपने असली रूप में बाघ-नख की तरह शिकार की चीर-फाड क़रने बाहर निकल आते हैं। मासूम ये समझ भी नहीं पाता कि उसके साथ समाज कितना घिनौना खेल खेल रहा है। वह हर उस शख्स को अपने पिता के नायकत्व या फिर कहें आदर्श की नजर से देखता है। वह समझ नहीं पाता कि चॉकलेट के लोभ में उसे ऐसा जख्म दिया जाएगा, जो ताउम्र उसकी नजर में समाज को व्यभिचारी बना देगा। हर रिश्तों का मानी तार-तार हो जाएगा। उसकी ओर प्रेम से बढे हर हाथ को वो शंका की नजर से देखेगा। यह एक ऐसा मनोवैज्ञानिक रोग होगा, जो एक डरे हुए भयभीत समाज को जन्म देगा।
ब्लादिमीर नोबोकोव के विश्वविख्यात उपन्यास लौलिता की सराहना करते कई लोग मिल जाएंगे। लेकिन इस उपन्यास को लौलिता की नजर से देखने का साहस कितनों में है? एक मासूम बचपन को वासना के गंदे दलदल में धकेलने के जिम्मेदार शख्स को हम नायकत्व देने का साहस दिखाते हैं, तो कहीं न कहीं वो कुंठित विचार हमारे भीतर भी मौजूद हैं, यह इसी बात की गवाही है। हो सकता है कि लौलिता ने नायक (?) की एंट्री से पहले ही सहपाठियों में यौन-अभिरुचि दिखाई हो। लेकिन हमारे वहशी नायक ने उसे दलदल से बाहर निकालने की बजाय उसे और गहरे धकेलने का ही तो काम किया। अभी हमारे यहां सेना का एक लेफ्टिनेेंट कर्नल मासूम बच्चों के पोर्नोग्राफी इंटरनेट पर डालने के आरोप में पकडा गया है। कहते हैं इसपर देश-विदेश के खुफिया एजेंसियों की नजरें पहले से थीं। हालांकि सेना में सहकर्मियों के साथ यौन-शोषण के आरोप पहले भी लगते रहे हैं। लेकिन यह एक ऐसा आरोप है जो मासूमों के प्रति समाज की घोर उपेक्षा को ही दर्शाता है। देश का भविष्य, कल के भारत की तस्वीर और न जाने क्या-क्या विशेषण हम इन मासूमों के लिए प्रयोग में लाते हैं। लेकिन सभ्य समाज के भले मानसों के दिमाग के किसी कोने में एक ऐसा कीडा कुलबुला रहा होता है, जो इन अबोधोेंं की मासूमियत छीनकर अपनी सभ्यता का भौंडा प्रदर्शन करता है। शायद इन मासूमों की चीख उनकी काम वासना को और तीव्र ही करती होगी।
ये इस बात का परिचय है कि हम 21वीं सदी से आगे का सफर तय करने जा रहे हैं। उत्तर आधुनिकता का जाप करने वाले कुछ लेखक पहले तो ये तय कर लें कि क्या यह समाज आधुनिक होने के स्तर पर भी खडा हो सका है? बाजार के मानकों ने हमारे समाज के आदर्शों को धाराशायी कर दिया है। यहां हर एक व्यक्ति समाज की नजर में एक नंबर है, ऐसा प्रावधान सरकार करने जा रही है कि आपकी पहचान अब एक विशेष नंबर से किया जा सके। जो सरकार आम आदमी को विशेष नंबर से पहचानेगी, उसकी संवेदना समाज के प्रति कितनी मरी हुई होगी, इसका अंदाजा हम-आप खुद लगा सकते हैं। पश्चिम सभ्यता ने हमारे दरवाजे पर दस्तक दी और हमने पूरा दरवाजा ही उनके लिए खोल दिया। फिर समाज के प्रति उन संवेदनाओं को आने से भी हम भला कैसे रोक सकते थे, जो अपने मासूमों को निर्मम बाजार की भेंट चढा चुका हो। उन वहशियाना भेडियों को भी आने से रोकने का कोई तरीका नहीं था हमारे पास जो मासूमों को आसान शिकार बनाते हैं। कल हमारे बच्चे समाज के प्रति विकृति का भाव लेकर बडे होंगे और स्कूल में सहपाठियों पर दनादन गोलियां चलाएंगे। उसके लिए जिम्मेदार हम ही होंगे, मासूम बच्चे नहीं।
ऐसे बच्चे जो इन दरिंदों का शिकार होते हैं, वे समाज से कटे-कटे रहते हैं, चुप रहना एवं एकांतवास उन्हें ज्यादा पसंद होता है। समाज ने इनके दिलो-दिमाग पर जो गहरा जख्म दिया है, उसे भरने में वक्त तो लगेगा ही। हो सकता है समाज के प्रति ये विरक्ति उन्हें गलत रास्तों पर धकेल दे। फिर आनेवाली पीढियों में कई ऐसे होंगे, जो बडे होकर समाज के उसूलों को चुनौती देंगे। और हम कहेंगे, देखिए आज-कल के बच्चों को, संस्कार तो इनमें रहा ही नहीं। जब अपने बच्चों पर हम सारी जिम्मेदारियां लाद देंगे, असमय ही उनका बचपना छीन लेंगे, पैदा होते ही अव्वल रहने के करतब सिखाने लगेंगे, बच्चों को समय नहीं देंगे, तो ये मासूम अव्वल तो होंगे, लेकिन कुंठित इच्छाओं के साथ । फिर हम उनसे यह उम्मीद तो कतई न करें कि वे अपने मां-बाप का वही सम्मान करेंगे, जो कभी आपके समय में होता था। अक्सर देखा गया है कि नजदीक के रिश्तेदार या पडाेसी ही इन मासूमों को अपने हवस का शिकार बनाते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं, जिनका आपके घर बराबर आना-जाना होता है। वे किसी ऐसे ही मौके की तलाश में होते हैं, जब वे इन मासूमों को शिकार बना सकें। आपके परिवार में ऐसे शख्स का इतना दबदबा होता है कि बच्चा डर से मुंह भी नहीं खोल पाता। वह अंदर ही अंदर घुटता है और समाज के प्रति संशय, शंका के साथ उपेक्षा का भाव लेकर बडा होता है।
एक हकीकत पर गौर फरमाएं। बिगडैल बच्चों को सुधारने के लिए उन्हें अपराधियों से दूर सुधार गृह में रखा जाता है। यहां की हकीकत भी शर्मसार करने वाली है, जिन अधिकारियों पर इनके चरित्र-निर्माण की जिम्मेदारी होती है, वही इनका चरित्र-हरण करने में अव्वल होते हैं। अनाथालयों में भी ऐसे वहशी दरिंदे आपको मिल जाएंगे, जो अनाथ बच्चों के साथ भी दुराचार करने से परहेज नहीं करते। जब मां-बाप ने ही इनके साथ न्याय नहीं किया, तो फिर वे समाज में भला किससे उम्मीद करें? मंदिरों में भी पंडे-पुजारियों पर कई बार ऐसे आरोप लगते रहे हैं, जो बाल यौन-शोषण में शामिल रहे हैं। लेकिन जब देश की सीमा पर बलिदान होने वाला सिपाही भी चाइल्ड पोर्नोग्राफी बनाता फिरे, तो फिर बाल-सुधार की उम्मीद किनसे की जा सकती है? देश-विदेश की खुफिया एजेंसियों की रडार पर यह सैन्य अधिकारी पहले से ही था। उसकी गतिविधियों पर नजर रखी जा रही थी। यह इस बात का गवाह है कि चाइल्ड पोर्नोग्राफी में रुचि लेने वाले लोगों की संख्या भी इन दिनों बढी है। अब यह जांच का विषय हो सकता है कि इस सैन्य अधिकारी ने पैसा बनाने के लिए मासूमों को बाजार में उतारा या फिर हवस का शिकार बनाने के लिए।
इंटरनेट पर बाल अश्लीलता को परोसने का मतलब है दुनियाभर में सक्रिय ऐसे यौन अपराधियों की कुंठा को जगाना। भारत में ऐसे मामले कम ही लोगों के सामने आ पाते हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि यहां बच्चों की मासूमियत से खिलवाड नहीं किया जाता। एस्कॉन से लेकर साईंधाम के मंदिरों में बिछे कालीनों के नीचे झांक कर देखें, तो धूल का ढेर मिलेगा, जो पुजारियों के धवल वस्त्र को दागदार करते हैं। जो यह बताता है कि सब कुछ साफ-सुथरा नहीं है, जैसा कि ऊपर से दिख रहा है। शहर में कई ऐसे भेडिए हैं, जो दिन के उजाले में ही मासूमों को हवस का शिकार बनाने के लिए निकलते हैं। उनकी खूंखार नजरें ऐसे मासूमों पर होती है, जो घर में अकेले हों या फिर घर से दूर किसी पार्क में हों। निठारी के दहशत से उबरने में समय तो लगेगा, लेकिन यह सदमा हमें कई और दूसरे निठारी न होने देने के लिए आगाह तो कर ही गया। सुरेंद्र कोली और पंढेर के साथ इस देश का कानून जो भी फैसला दे, ये शातिर मानवता के लिए खतरा बनकर सामने आते रहेंगे। मासूमों का बचपन असमय ही न छीन जाए, इसके लिए हमें बच्चों को समझना होगा, समय देना होगा, भले-बुरे की पहचान बतानी होगी, ताकि निठारी के प्रेत को हमेशा के लिए दफन किया जा सके। ताकि सोए हुए देश को जगाने के लिए फिर किसी मासूम को मरने के बाद कोर्ट में जाकर हड्डियों को गवाह के रूप में पेश न होना पडे। अाखिर इन अबोध मासूमों की हडिडयों ने ही तो इन अधम, नरपिशाचों की गवाही दी थी।
Friday, May 28, 2010
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