Wednesday, July 14, 2010
श्रमशील स्त्रियों पर स्वतंत्र विमर्श जरूरी: मंडलोई
यूरोप के नारी-स्वातंत्र्य को भारतीय परिवेश में लागू नहीं किया जा सकता। आदिवासी, दलित, निम्न जातियों की स्त्रियों की पीडा को समझने के लिए अलग नजरिए से चीजों को देखना होगा। श्रमशील स्त्रियों की चिंताओं को आधुनिक विचार के दायरे में लाना होगा। हालांकि इन स्त्रियों के उध्दार के लिए कोई अलग से रूप-रेखा समाज में दिखाई नहीं देती
स्कूल में मजदूर बच्चों के साथ गाली-गलौज होने पर आप सहपाठियों से मार-पीट पर उतारू हो जाते थे। आपने कभी कहा भी था कि अगर कवि नहीं होता, तो गुंडा-मवाली होता। इस उग्र तेवर ने कविता-लेखन की ओर कैसे प्रेरित किया?
ये तो बचपन के दौर की बातें हैं, जब कविता-लेखन शुरु भी नहीं किया था। घर के माहौल, आस-पास के परिवेश और सांस्कृतिक माहौल ने कभी गलत रास्ते पर जाने नहीं दिया। हालांकि पूरी गुंजाइश थी बिगडने की। मेरे भीतर बहुत गुस्सा भरा था जीवन की विपरीत परिस्थितियों को लेकर। इसके कारण मेरी सहपाठियों से मार-पीट और गाली-गलौज भी हो जाती थी। अगर अच्छा सांस्कृतिक माहौल न मिलता, तो जरूर वैसा ही हो जाता। घर की शिक्षा का वातावरण एवं खासकर मां जिनकी रुचि रामायण, धार्मिक-ग्रन्थों में थी, ने अच्छे संस्कार बचपन से ही डाले। पिता कबीर के गीतों को गाते थे। मानस-पाठ भी घर पर बराबर होता रहता था। कुछ इन्हीं कारणों से कभी गलत रास्ते पर नहीं भटके।
'तोडल मौसिया' जैसे किरदार क्या आज भी ग्रामीण परिवेश में देखने को मिलते हैं?
अभी भी कई ऐसे किरदार ग्रामीण परिवेश में मिल जाएंगे, जहां तक अभी नई हवाएं नहीं पहुंची हैं। खेती, किसानी, गरीबों की बस्तियों में अभी भी जीवन वैसे ही ठहरा है। किताबी शिक्षा तो वहां पहुंची नहीं, लेकिन जीवन की किताब से उन्होंने बहुत कुछ सीखा है। हाशिए के जीवन पर ऐसे किरदार बहुतायत में हैं-परसादी, श्री कृष्ण इंजीनियर, दमडू नाई अभी भी जिंदा हैं। लेकिन इनसे मिलने के लिए घुमक्कडी ज़ीवन जीना होगा, यायावर की तरह भटकना होगा। गांवों, सतपुडा जैसे घने जंगलों की खाक छाननी होगी। तोडल मौसिया ने तो गांव का भाईचारा निभाने के लिए जीते-जी अपना श्राध्द-कर्म कर लिया था ताकि पूरे गांव को एक साथ जिमाया जा सके। वे शादी-शुदा तो थे नहीं, गांव के हर भोज में उनकी उपस्थिति जरूरी थी तो उन्हें यह बुरा लगता कि वे ऐसे ही मरें और क्रिया-कर्म के बाद गांववालों को खिलाने वाला भी कोई न हो। तो उन्होंने लोगों को बिना कारण बताए पूरे गांव को न्यौता दे डाला। तो ऐसे थे हमारे तोडल मौसिया।
आपने बचपन में गरीबी को काफी नजदीक से महसूस किया है। कविता में 'श्रम-शक्ति को प्रतिष्ठा' देने के पीछे क्या यह भी एक वजह रही?
हां, ये तो है ही। लेकिन कुछ लोग अपने संदर्भ में ही नहीं, समाज के संदर्भ में भी जीते हैं। दरअसल कोई रचना सामाजिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर ही लिखी जाती है। मैं लिखता हूं, तो इसमें आस-पास के तमाम लोगों की जिंदगियां भी शामिल होती हैं। ये सभी स्मृति का हिस्सा हैं, जो जाने-अनजाने आपकी रचनाओं में चले आते हैं। ऐसा ही कोई भी रचनाकार करता है। मेरे अनुभव को ही देखें तो यह किसी भी मजदूर के अनुभव से मिलता जुलता होगा, जो दुनिया में कहीं का भी हो सकता है। मैंने कविता में एक जगह दमडू कक्का का जिक्र किया है, जो नाखून बनाने के लिए आया करते थे। शायद आपने पढी हो...
जी, उस कविता में कुछ ऐसा भाव था- 'देखता हूं नाखून तो, बस एक तीखी याद हिडस भरी, वह जो होती तो होते कक्का कहीं, नेलकटरों के इस दौर में, काट तो लेता हूं लेकिन रगडने की मशक्कत, सुविधा कोई कला नहीं।' इसी संदर्भ में आपने एक हुनर के मौत के गर्त में समा जाने की चर्चा भी की है।
इस समाज में कई कलाएं यूं ही विलुप्त होती जा रही हैं, जिसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जा रहा। इस भाग-दौड भरी जिंदगी में लोगों के पास समय ही कहां है कि इनके बारे में भी कुछ सोच सकें।
समुद्री हवाओं से उठते नमक की गंध, सघन वन की नीरवता और आदिम जन-जातियों का संगीत-आपकी कविता को व्यापक फलक देते हैं। प्रकृति से जुडाव आपने कब महसूस किया?
मेरा बचपन तो सतपुडा के जंगलों में ही बीता। चारों ओर प्रकृति अपने तमाम सौंदर्य को समेटे आस-पास ही पसरी थी। सरसराती हवाएं, चहचहाते पक्षी, पेडों से छनकर आती गोलाकार रोशनियों का पुंज, ऊंची पर्वत श्रृंखलाएं, खूंखार जंगली जानवर से लेकर आदिवासियों का जन-जीवन तक सबकुछ तो जीवन के संगीत के रूप में मौजूद था।
जरूरत थी, तो उस बिखरे संगीत को गुनगुनाने की। प्रकृति एवं जीवन के संगीत को बहुत नजदीक से सुनने का मौका मिला। प्रकृति में सौंदर्य तो है ही, जीवन का संघर्ष भी मौजूद है। इन सबों को अलग कर देखने की जरूरत नहीं। सतपुडा के जीव-जंतु, आदिवासी, वहां के बोल को संदर्भ से काटकर देखना कठिन होगा। मालवा, छत्तीसगढ, अंडमान-निकोबार न जाने कहां-कहां घुमक्कडी करता रहा। आदिवासी, समुद्र का संबंध तो जीवन का हिस्सा ही बन चुके हैं।
जीवन का बोध, जीवन-संघर्ष से ही अर्जित किया जाता है। निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन की लंबी परंपरा हमारे यहां रही है। वातानुकूलित कमरों में बैठकर साहित्य-सृजन को आप किस रूप में देखते हैं, जहां प्रकृति एवं आमजनों का संघर्ष नहीं दिखता?
हमारा समय तो रिएलिटी पर आधारित था। लेकिन आज रिएलिटी के साथ वर्चुअल रिएलिटी का भी दौर है। चीजें वर्चुअल ज्यादा हो गई हैं। स्क्रीन, फिल्मों, पत्र-पत्रिकाओं ने देखने की एक दृष्टि पैदा की ही है। जो रचनाकार जैसा होगा, उसी हिसाब से चीजों को देखेगा। जहां एक तरफ आज सही कविताएं हैं, तो दूसरे तरह की कविताएं भी मौजूद हैं। विशुध्द अनुभव से कविता तो क्या, कोई भी विधा नहीं लिखी जा सकती। जीवन का संघर्ष झेलने के बाद ही उनकी गहनतम पीडा रचनाओं में झलकती हैं और रचनाएं लोगों के दिलों में जगह बना पाती हैं।
भवानी प्रसाद मिश्र ने आदिवासी समाज के सामने अपनी अकिंचनता व्यक्त करते हुए कहा था-'मैं इतना असभ्य हूं कि तुम्हारे गीत नहीं गा सकता।' विलुप्त होते आदिवासी समाज की पीडा आपकी रचनाओं में मुखर हैं। आज आपके जन्मस्थान छिंदवाडा में उनकी क्या स्थिति है, किन हालातों में जीने को मजबूर हैं वे?
आदिवासी समाज तो पहले भी उपेक्षित था, आज भी हालात कमोबेश वैसे ही हैं। ग्लोबलाइजेशन के दौर में बाजार एवं सत्ता का घिनौना खेल जंगलों तक जा पहुंचा है। औद्योगिकरण के नाम पर जंगलों में जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है, पेडों की कटाई जारी है। चाहे छत्तीसगढ हो, मध्यप्रदेश या हिमाचल प्रदेश। यह समाज कहीं भी मुख्यधारा में जगह नहीं बना पाया है। महाश्वेता देवी उन लोगों के बीच रह रही हैं, उन्हें शिक्षित कर रही हैं। कुछ और लोग भी लगे हैं। शिक्षा के कारण ही स्वतंत्र चेतना का विकास हो पाता है और कोई समाज विचारवान बनता है। स्वतंत्र रूप से सोचने का विकास इस समाज में नहीं हो पाया है। इनकी सादगी, सरलता को शहरी समाज अपने तरीके से छलता रहा है। दरअसल जब तक वे शिक्षा से महरूम रहेंगे, विचार का आलोक उन तक नहीं पहुंचेगा, मुख्यधारा में जगह बना पाना मुश्किल होगा।
शहरी जीवन की चिंताएं एवं मध्यवर्ग के दोहरे चरित्र की ओर आपका ध्यान क्यों नहीं गया?
नहीं, मेरी रचनाओं में शहरी वर्ग की चिंताएं भी शामिल हैं। ये मेरी रचनाओं कविता, गद्य, निबंध, लेख में तमाम जगह बिखरी पडी हैं। दरअसल शहरी मध्य वर्ग अपने में ही सिमटा हुआ समाज है। शहरी जीवन में मालिक वर्ग की मक्कारियों के आगे मजदूरों की चालाकियां कुछ भी नहीं। मुझे लगता है कि जो चीज उनका है और उन्हें नहीं दिया जा रहा है, उसे मालिकों से छीन लेने में कोई बुराई नहीं।
स्त्री-विमर्श शहर की मॉडर्न एवं बुध्दि विलास महिलाओं का शगल मात्र बनकर रह गया है? ऐसे में एक मजदूर स्त्री का वात्सल्य भाव, जब मिल का भोंपू बजते ही वह बच्चे को दूध पिलाने बरसात में भींगती दौड पडती है, की चिंताएं कहां जगह पाती हैं?
सीमित अर्थ में ही जगह बना पाई हैं। यूरोप के नारी-स्वातंत्र्य को भारतीय परिवेश में लागू नहीं किया जा सकता। आदिवासी, दलित, निम्न जातियों की स्त्रियों की पीडा को समझने के लिए अलग नजरिए से चीजों को देखना होगा। श्रमशील स्त्रियों की चिंताओं को आधुनिक विचार के दायरे में लाना होगा। हालांकि इन स्त्रियों के उध्दार के लिए कोई अलग से रूप-रेखा समाज में दिखाई नहीं देती। मजदूर या आदिवासियों के लिए स्वतंत्र विमर्श की जरूरत है। इनकी चिंताओं एवं संघर्ष को महसूस करना होगा। नई सोच का उत्खनन करना होगा, सीमित सोच से कुछ नहीं होनेवाला। महाश्वेता देवी के उपन्यास, नागार्जुन की कविताएं और कुछ जगह तो ये चिंताएं दिखती हैं। हालांकि स्पांसर्ड विमर्श में ये चीजें नहीं मिलेंगी।
आजकल आप क्या कर रहे हैं? फिल्म, डाक्यूमेंट्री, कविता या गद्य लेखन।
शमशेर जी और बिरजू महाराज पर डॉक्यूमेंट्री बनाने की तैयारी चल रही है। इन दिनों मूलत: गद्य लिख रहा हूं। उर्दू के प्रभाव वाली कविताओं का संकलन निकालने की भी योजना है। 'कवि का गद्य' जिसमें आलोचना, लेख, निबंध, डायरी और कॉलम भी शामिल होगा, पर भी एक किताब लिख रहा हूं।
नए लेखकों के लिए कोई संदेश।
युवा लेखकों को बंद कमरों से निकलकर समाज, देश, दुनिया को देखना, समझना होगा। यायावरी की जिंदगी जीनी होगी, घुमक्कडी क़र दुनिया के फलसफे को समझना होगा। यही एक रास्ता है।
वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई के साथ चन्दन राय की बातचीत
Subscribe to:
Posts (Atom)